रविवार एक ऐसा दिन जिसका इन्तजार हर किसी को रहता है। यही वो दिन है, जिसमें एक इंसान को अपने परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताने का पूरा समय मिलता है।
जरा सोचिए अगर रविवार की छुट्टी नहीं होती, तो क्या होता, क्योंकि यही एक दिन ऐसा होता है जब काम की भागदौड़ से, पूरे हफ्ते में से एक दिन की छुट्टी नसीब होती है। रविवार की छुट्टी हमें यूं ही आसानी से नहीं मिली, इसके पीछे किसी के संघर्ष की गाथा जुड़ी है।
जिस तरह से ब्रिटिश हुकूमत की जंजीरों से आजादी पाने के लिए हमने संघर्ष किया, उसी तरह हमें सप्ताह में एक दिन की छुट्टी के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ा था।
रविवार की छुट्टी कोई एक दिन में घोषित नहीं कर दी गई थी। आठ साल की लंबी लड़ाई के बाद हमें रविवार की छुट्टी नसीब हुई थी।
जब भारत ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, उस समय इस देश के मजदूर हर दिन काम किया करते थे, कपड़ा और दूसरे तरह की मिलों में काम करने वाले इन मजदूरों को एक दिन का भी आराम नहीं दिया जाता था।
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उस समय मजदूरों के नेता हुए करते थे श्री नारायण मेघाजी लोखंडे, जिन्होंने अपनी आवाज बुलंद कर मजदूरों के हक के लिए आंदोलन छेड़ दिया।
श्रम आंदोलन के जनक कहे जाने वाले लोखंडे ने साल 1881 में ब्रिटिश साम्राज्य के सामने हमारे मजदूरों को सप्ताह में एक दिन की छुट्टी दिए जानी की मांग रखी।
भारत सरकार ने भी नारायण मेघाजी लोखंडे को सम्मान देते हुए 2005 में उनका एक डाक टिकट जारी किया।phila-art
मजदूरों की आवाज बने लोखंडे ने अंग्रेजों से, रविवार को छुट्टी का दिन घोषित करने का अनुरोध किया, क्योंकि रविवार को ही अंग्रेज चर्च जाया करते थे और हिन्दू देवता खंडोबा का भी दिन, रविवार को ही माना जाता है। लेकिन अंग्रेजी अफसर इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हुए।
लिहाजा लोखंडे ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजा दिया। 1881 से लेकर 1889 तक चले कड़े संघर्ष के बाद आखिरकार अंग्रेजी हुकूमत को अपने घुटने टेकने पड़े और रविवार को हमेशा के लिए छुट्टी का दिन घोषित कर दिया गया।
साथ ही, वो नारायण मेघाजी लोखंडे ही हैं, जिनकी वजह से दोपहर में काम के दौरान आधे घंटे लंच का समय, हर महीने की 15 तारीख तक वेतन मिलना संभव हो सका।
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