वर्ल्ड कप 2011. फाइनल. वानखेड़े स्टेडियम. इंडिया वर्सेज़ श्री लंका. 19वां ओवर. मुरलीधरन का पहला ओवर. दूसरी गेंद. बैक फुट पर पॉइंट के सामने पंच. बैट्समेन दौड़ कर जल्दी से उस पार पहुंच जाना चाह रहा था. उधर पहुंचा तो मन बना लिया कि दूसरा रन भी लेना है. दौड़ पड़ा. साथी रनर कोहली था. तेज़. वो भी दौड़ पड़ा. उधर डीप से थ्रो आया. बैट्समैन अभी आधी ही पिच पर था. गेंद हवा में ही थी कि उसने छलांग लगा दी. क्रीज़ में बल्ला लेके कूद पड़ा. ऐसे, जैसे जीवन-मौत का सवाल था. क्रीज़ में बल्ला जाते ही ज़मीन में घिस गया. थ्रो कीपर के सामने पड़ा. गेंद हल्की सी अजीब ढंग से हवा में उठ गयी. कीपर ने गेंद कलेक्ट की. लेकिन तब तक बैट्समैन वापस पहुंच चुका था. अभी भी घिसट ही रहा था. धूल के एक गुबार के बीच. उसने कूदते वक़्त अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी. उसे अपने विकेट की अहमियत मालूम थी. वो इतनी ज़ोर से आगे की ओर कूदा था कि उसके शरीर का पिछला हिस्सा हवा में उठ गया. दोनों टांगें ग्रेविटी को झूठा बता रही थीं. और ठीक उसी वक़्त गंभीर एक बिच्छू की तरह लगने लगे थे. वो बिच्छू जिसका डंक हवा में तना खड़ा है. चोट को तैयार. बैट्समैन खड़ा हुआ तो कमीज़ सन चुकी थी. चीकट एकदम. लेकिन उसे इस बात का गम नहीं था. वो खिलाड़ी था. और एक खिलाड़ी के लिए वो चीकट हो चुकी कमीज़ गहने से कम नहीं होती.
उस रात टूर्नामेंट ख़तम हुआ. उस रात की दो अहम तस्वीरें. सचिन का कोहली के कंधे पर बैठ ग्राउंड का चक्कर लगाते हुए और धोनी के मारे आखिरी छक्के की तस्वीर. एक तस्वीर जो मुझे जितना कचोटती है उतना ही सुकून भी देती है. वो तस्वीर जिसके बारे में सबसे कम बात की जाती है. गंभीर के आउट होने पर जाते वक़्त उनकी हेल्मेट उछालते हुए जाने की तस्वीर. उसके पहले आउट होते ही उनके हाथ हवा में उठ गए. बल्ला उठाये हुए. जैसे एक बहुत बड़ा काम पूरा हुआ हो. 122 गेंदों पर 97 रन. वो 97 रन जिन्होंने आधा वर्ल्ड कप जिताया था. एक चौथाई धोनी और बचा-खुचा बाकी टीम ने. और यही एक बात गंभीर को हमेशा से खाती आई है. उसे वो हक़ नहीं मिला जिसका वो हक़दार रहा. उसने कुछ काम किया, मगर ट्रॉफी उसे मिली, जिसके काम में ज़्यादा चमक-दमक रही.
ये 97 रन बहुत काम के थे. और जिस तरह से गंभीर आउट हुए थे, उनकी ईमानदारी और टीम के लिए खेलने की आदत मालूम चल रही थी. 54 गेंद में 52 रन चाहिए थे. टार्गेट एक गेंद पर एक रन का होने ही वाला था. सामने परेरा था. स्लो पेसर. गंभीर को पैरों का इस्तेमाल करना बेहद पसंद है. परेरा पर निकल पड़े. बिना ये सोचे कि खुद की सेंचुरी होने वाली है. मात्र 3 रन दूर. बिना ये सोचे कि वर्ल्ड कप में चेज़ करते हुए सेंचुरी मारना तोप चलाने से भी मजबूत काम होता है, जिसे वो करने वाले थे. बिना ये सोचे कि ऐसा करने वाले वो पहले बल्लेबाज बन जायेंगे. लेग साइड में रूम बनाकर डाउन द पिच आये. स्लॉग किया और मिस कर गए. मिडल स्टम्प अपनी जगह से हिल गया. वानखेडे में शांति छा गयी. और फिर अगले ही पल वहां तालियों का शोर भर गया. गंभीर के लिए हर कोई खुश था. लोगों के पास उन्हें शुक्रिया कहने को ताली पीटने के सिवा और कुछ नहीं था. मैन ऑफ़ द मैच धोनी को मिला. तस्वीर धोनी की छपी. कंधे पर सचिन चढ़े.
साल 2007. जोहांसबर्ग. साउथ अफ़्रीका. वर्ल्ड टी-20 फाइनल. इंडिया वर्सेज़ पाकिस्तान. गौतम गंभीर ओपेनिंग के लिए आये. साथ में यूसुफ पठान. एक एंड पर बैट्समैन आ रहे थे, जा रहे थे. दूसरे एंड पर गौतम गंभीर सब कुछ खड़े देख रहे थे. मानो साक्षात संजय हों. ये मार भी रहे थे. संजय बस आंखों देखा हाल सुना रहे थे. गंभीर ने आउट होने के वक़्त 54 गेंदों पर 75 रन बनाये. टीम का स्कोर था 130 पर 5 विकेट. 7 बल्लेबाजों में गंभीर का हिस्सा 57%. बाकी के बल्लेबाजों का स्कोर था 15, 8, 14, 6, 6*
ऐसे में इंडिया के लिए गंभीर वो बने जिसने मझदार में फंसी कश्ती निकाल किनारे लगा दी. दो ओवर बाद इंडिया की इनिंग्स खतम हो गयी. कुल स्कोर 157 पर 5. अगली इनिंग्स में दो तस्वीरें फिर से चलीं. आख़िरी शॉट पर जोगिंदर शर्मा की गेंद पर कैच लेता श्रीसंत और खुशी में चिल्लाते धोनी. गंभीर एक बार फिर से पार्श्व में.
गौतम गंभीर. यानी भयानक तरीके से जूझ के खेलने वाला क्रिकेटर. बचपन में एक खिलौना देखा था. कित्ता भी मारो, वो गिरता नहीं था. उसके तले में सरसों के दाने भरे रहते थे. गंभीर भी वही खिलौना है. कितने भी मुक्के बरसाओ, नहीं गिरता था. दोबारा उठा खड़ा होता था. हाल ही में गंभीर को टेस्ट टीम में न्यूज़ीलैंड के खिलाफ़ देखना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. हाल ये था कि लगभग महीने भर पहले गंभीर को टीम में देखने का सवाल भी मन में आता था तो हंसी आती थी. लेकिन दिलीप ट्रॉफी में जिस तरह से रन बनाये, उन्हें बाहर रखना बेहद मुश्किल था.
इसके साथ ही उनकी ढीठ होने की फितरत. फिर सामने चाहे ऑस्ट्रेलिया हो चाहे पाकिस्तान. वॉटसन ने ज़्यादा खिट-खिट की तो दौड़ते वक़्त उसे कुहनी मार दी. बैन लग गया. लेकिन हां, हमेशा ही बदतमीज़ रहे ऑस्ट्रेलियन खिलाड़ियों को एक ये इशारा ज़रूर गया कि उनके सामने खड़े होकर उतनी ही बदतमीज़ी से जवाब देने वाला कोई माई का लाल आ गया है. कानपुर में कम से कम सवा किलो गालियां तौल के अफ़रीदी के मुंह पर मारने वाला गौतम गंभीर. कामरान अकमल के मुंह पर जाकर उसे औकात दिखाने वाला गौतम गंभीर.
हालांकि उनके टेम्परामेंट से दिक्कतें तो रही हैं. फिर वो चाहे आईपीएल में कोहली से हुई गाली-गलौज हो, या आईपीएल में ही बैंगलोर के खिलाफ़ जीतने की हालत में पहुंचने पर उचारी गई गालियां और कुर्सी को मारी लात भी एक मुद्दा है. लेकिन ठीक है. घर का कमाऊ बेटा हो तो चार ऐब भी समझ लिए जाते हैं.
खैर, गौतम गंभीर. यानी बिच्छू. यानी वो खिलौना जिसको कितना भी मारो, उठ खड़ा होता है. जितना भी उकसाओ, उतना उल्टा काटने को दौड़ता है. जिसको पैरों का इस्तेमाल करना बहुत पसंद है. जो टीम के लिए खेला. जिसे उतनी लाइमलाइट नहीं मिली, जितनी मिलनी चाहिए थी. जिसका रंज उसे हमेशा रहेगा. शायद.
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