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हाल-फिलहाल की मंदी छंटने लगी थी. ये साल 2010 था, ख़त्म हो रहा था, उस वक़्त टेक्नोलॉजी का कुछ ऐसा था कि हर हाथ में फोन पहुंच चुका था. ऑरकुट कहीं पीछे छूट चुका था और फेसबुक जॉम्बीलैंड बना था, जहां सब अभुआए फिरते थे, जहां हर रोज एक जान-पहचान वाले की रिक्वेस्ट आती. दिन-ब-दिन नई-नई प्रोफाइलें तैयार हो रहीं थी. ध्यान रहे हम उस दौर की बात कर रहे हैं, जब फेसबुक पर कवर पिक अनिवार्य नहीं हुई थी. जब हर कोई भाजपाई-कांग्रेसी या आपिया नहीं ठहरा दिया जाता था. फेसबुक पर गालियां लिखना बुरा माना जाता था, लोग कमेंट में मेंशन नहीं पोस्ट में टैग किए जाते थे. जब नोटिफिकेशन मिस करना नैतिक अपराध समझा जाता था. ये वो दौर था जब फेसबुक पर मैसेज भेजने के पहले सब्जेक्ट का ऑप्शन भी आता था. फोन छोटे थे, तकनीक सीमित, नेट पैक सस्ते और दोस्तों को गुड मॉर्निंग वाले शेर भेजना अभी भी वक़्त की बर्बादी नहीं माना जाता था.


वो जैसे कहते हैं कि देश बदलाव के दौर से गुजर रहा था. वैसा कुछ न था. बाजार संभल रहा था. ऐसा मुझे लगता है. अन्ना की क्रांति भी अभी तक मार्केट में न धंसी थी. हुआ ये था कि चीजों की स्वीकार्यता बढ़ गई थी, मल्टीमीडिया-GPRS वाले फोन्स के बाद एक्सपोजर भी. कैफे में पड़े कम्प्यूटरों से आगे बढ़ रहे समाज को नई तरह की आजादी महसूस हो रही थी, मेमोरी कार्ड की जरूरत और नेट पैक की अनिवार्यता सिंक्रोनाइजेशन में थे.


कुल जमा सोशल नेट्वर्किंग साइट पर एक बड़े वर्ग का किशोरवय जैसा कुछ चल रहा था. ठीक उसी समय 2010 की सर्दियों में एक कहानी फैलना शुरू हुई. रोहन राठौर की. आईआईटी- गुवाहाटी का लड़का था. एक लड़की सुप्रिया से प्यार करता था. एक दिन उसे पता चला उसे कैंसर है, टर्मिनल कैंसर, जिसमें आदमी बहुत रोज नहीं जीता. इस बीमारी के कारण वो सिर्फ 30 दिन जीने वाला था. उसने सुप्रिया को अपनी बीमारी के बारे में बताया. सुप्रिया उसे छोड़ गई. टूटे दिल से Emptiness गाना निकला. उसने ये गाना गाया और 15 दिन बाद मर गया. इसी कहानी के साथ ये गाना शेयर किया जाता. गाना सुना जाता. डाउनलोड किया जाता. शेयर किया जाता. ये कहानी ऐसे फ़ैल रही थी जैसे कुएं की जगत पर झाड़ फ़ैल जाते हैं.





बाद के किस्से ये भी हैं कि उस लड़की ने गाना सुना , उसे गलती का अहसास हुआ, बदले में उसने लेडीज वर्जन ‘मैंने मेरे जाना’ गाया और सुसाइड कर लिया. इससे सीधी कहानी हेमिंग्वे भी क्या सुनाएंगे?


एक वक़्त था जब यू-ट्यूब पर रोहन राठौर के नाम से इस गाने के 340 वर्जन आ चुके थे. गजेन्द्र वर्मा वाला वर्जन ये रहा.




पर बात यहां इसकी नहीं कि ये झूठ किसने फैलाया. कैसे गजेन्द्र वर्मा ने इसे अपना साबित किया. कैसे उस वक़्त रोहन राठौर के नाम से चलने वाला पेज आज खोलो तो स्लोप अप वेबसाइट का पेज खुलता है. अब क्लिक करने पर यूआरएल www.facebook.com/pages/Emptiness-tune-mere-jaana-Rohan-Rathore/149376318445260 बदलकर www.facebook.com/SlopUp हो जाता है. यहां हम जो बता रहे हैं वो ये कि गाना पूरे एक दौर के भीतर धंस गया. अब तो गाना याद करो तो अपराधबोध और शर्म साथ जुड़ जाते हैं. लेकिन एक सच ये भी है कि गाना अच्छा था.



इसके साथ जो किस्सा जुड़ा था, उसकी वजह से इसने सीधे लोगों को छुआ, उन लोगों तक जिनके हाथ में नई-नई तकनीक आई थी, जिनके लिए अंग्रेजी में लिखी किसी कहानी को समझना तो आसान था लेकिन ये तय करना मुश्किल था कि लिखी हुई चीज सही है या गलत. स्कूल की बड़ी क्लास के बच्चों और ग्रेजुएशन लेवल के लड़कों में इस गाने का बहुत क्रेज था. हर चौथे लड़के की रिंगटोन में यही गाना बजता. फेसबुक पर जाने कितनों के पहले-पहले पेजेज के नाम इसी गाने पर धराए थे. आदमी दो- चार ऐसे ग्रुप में तो जरूर ही रहता था, जिसका नाम Emptiness या तूने मेरे जाना, कभी नहीं जाना हो.


फेसबुक पर फोटोज चलतीं. जूते-जीन्स वाला लड़का मुंडी झुकाए बैठा रहता. पीछे पेंट से इस गाने के लिरिक्स लिखे होते. जाने कितनों ने अपना पहला फेसबुक पोस्ट ही यही डाला होगा. गाने का अंग्रेजी हिस्सा रटा जाता. इलेक्ट्रिकल ब्रांच में तो सात लडकों ने इसे रिंगटोन में लगा रखा था. कुछ के तो अलार्म में भी यही गाना बजा करता. कान में इयरफोन लगा गाना सुना जाता है और बेवजह उदास हो जाते. उस वक़्त लगता था नए जवान हुओं का एक ढेर यही चाहने लगा था कि कोई सुप्रिया उन्हें छोड़ गई है और वो टर्मिनल कैंसर जैसी किसी कूल बीमारी से मरना चाहते हैं.


फेसबुक पर दुखद कहानियों की बाढ़ आ गई थी. कहानी कुछ ऐसे होती कि लड़का लड़की दोस्त थे. लड़का लड़की को प्यार करता पर कभी बता नहीं पाया. लड़की बीमार पड़ी उसको दिल की जरूरत थी. लड़के ने दे दिया. खुद मर गया लड़की बच गई. लड़का मर गया. लड़की को प्यार का पता चला.   या फिर दूसरा किस्सा लड़की-लड़का दोस्त थे. लड़का एक दिन गायब हुआ. कुछ दिन बाद लड़की को खत मिला. लड़के ने लिखा था उसे कोई ऐसी बीमारी थी जिसके चलते वो बच नहीं सकता था, लड़की दुखी हो जाती, इसलिए तब नहीं बताया. अब उसके मरने पर चिट्ठी आई. माने इमोशनल फूल बनने का दौर चल रहा था. याद रहे कि ऐसी तमाम कहानियां इसी गाने से जुड़े पेज और ग्रुप्स पर नजर आतीं.


दिल को भेदने वाली प्रेम कहानियां भी आने लगी थीं उस दौर में. एक कहानी में तो लड़का अंधी लड़की से प्यार करता है. और इतना ज़्यादा करता है कि लड़की को बिना बताए अपनी आंखे निकलवा के दे देता है. अब लड़की को दिखाई देने लगता है. और मैडम अपने बरसों पुराने बॉयफ्रेंड को अंधा देखकर छोड़ जाती हैं. लड़का मर जाता है और लड़की के लिए अंतिम चिट्ठी छोड़ जाता है. चिट्ठी में लिखा रहता है मेरी आंखों का ख्याल रखना. लड़की के साथ-साथ पढ़ने वाले भी ‘तड़प’ के रह जाते थे


गाना इतना दर्दभर था.
 “धूप और धूल से भरी एक दोपहर थी. खिड़की के सामने अकेले बैठे थे हम. सामने लंबी, सूनी सी सड़क थी. उसपर टाइट, नीली जीन्स पहने एक लड़का साइकिल चला के जा रहा था. जीन्स की जेबें बहुत बड़ी थीं और उसमें से एक जेब में एक फ़ोन था. फ़ोन पर फुल वॉल्यूम में गाना बज रहा था- ‘आशिक तेरा भीड़ में खोया रहता है…’ और लड़का गाने में डूबा हुआ, दिल के सबसे गहरे कोने से गाना गा रहा था. चिल्लाते हुए. उसकी तड़पती हुई गगनभेदी क्रंदन किसी पत्थर दिल लड़की का भी दिल पिघला देती. लेकिन हमें गज़ब की हंसी आई. और अगले 7-8 मिनट तक आती रही.”




ये गाना उदासी का पर्याय बन गया था. वो भी इसे सुनते जिनका ब्रेकअप हो पड़ा था. और वो भी जिनका ब्रेकअप नहीं हुआ था. जो कभी रिलेशनशिप में नहीं रहे. वो उस दर्द को फील करना चाहते थे, जो एक्चुअली कभी उन्हें हुआ ही नहीं.  लड़कियां इस गाने को सुनती. अभी दोस्त बता रही थी, उसकी रूममेट रात को दहाड़े मारकर रोती. उसका बॉयफ्रेंड इस गाने की लाइंस सुनाता और वो इस बात पर पिन्नाती कि लड़के को उससे दूर रहकर कितना दर्द हो रहा है.


इस गाने ने असर क्यों किया, कीवर्ड पढ़िए, आईआईटी, सुप्रिया, रोहन राठौर, कैंसर. आईआईटी गोवाहाटी, सुनने से ही एक कायदे से इंस्टीट्यूट का नाम लगता है, आईआईटी माने वो जगह जहां उस उम्र का हर लड़का जाना चाहता था, जिस पर ऐसी कहानी असर करती है. ध्यान रहे ये चेतन भगत को जान चुकने के बाद का वक़्त था. आईआईटी के नाम में चार्म था, यही वो टाइम था जब गठ्ठर के हिसाब से बच्चे कोटा भेजे जाते थे, आईआईटी की तैयारी को. तब तमाम आकाश और एलन फाल्स सीलिंग वाले क्लासरूम्स के जरिए एक नए किस्म की दुनिया में धंसाना आसान कर रहीं थीं. माने आपने बारहवीं पास की, आईआईटी में जाना चाहते थे, आप नहीं जा पाए, आईआईटी का भौकाल है, और इंजीनियरिंग के दूसरे साल किसी आईआईटी वाले का ऐसा किस्सा सुनने को मिले तो काहे न ध्यान जाएगा.


कैंसर के नाम से हम डरते हैं. बड़ी बीमारियों के नाम पर कैंसर का बिच्छू दिखता है. मैगी से ब्रेड तक कैंसर जुड़ जाए तो हम डर जाते हैं. किसी को कैंसर की खबर से भी हम सिहर जाते हैं. ऐसे में कैंसर सुनते ही हम किसी भी ‘रोहन राठौर’ के लिए दुखी हो जाते थे. सोचिए कि रोहन राठौर इतनी सिमिट्री और सुर में नाम क्यों रखा गया? भले रहने वाले का मकसद न रहा हो, पर ये नाम इतना कैची था कि हमेशा के लिए जाकर अटक जाए. सुप्रिया नाम भी बिल्कुल वैसा ही 85 से 95 के बीच की आम सी लड़की का नाम लगता था, जो आपको मरता छोड़ जाए तो सिर्फ नाम पर दो चार एलबम निकाल देने का जी कर जाए.


एक आम से गाने को एक घटिया सी कहानी ने इतना फेमस कर डाला. आप मानो न मानो. उस टाइम में इस गाने की वैल्यू थी. इस गाने की आज भी कल्ट वैल्यू है. जाने कितनों की कैसी-कैसी अजीब सी कहानियां इस गाने से जुड़ी हैं. आज भी किसी के सामने बजा दीजिए. सिर पकड़कर कहेगा…अबे ये गाना…अरे इस गाने ने ना एक टाइम पर..



सोर्स:लल्लनटॉप



 
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