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कभी दूसरों की टट्टी साफ़ कर के देखिए, ऐसा लगता है




किसी तथाकथित ‘ऊंची’ जाति के हिंदू परिवार में पैदा होना, जिसके पास खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की सुविधा हो, ये अपने आप में एक प्रिविलेज है. इस बात को बताना नहीं पड़ेगा कि आप शिक्षित हैं, स्कूल से लेकर कॉलेज तक अच्छा करते आए हैं. अच्छा नहीं तो कम से कम औसत. नौकरी पा चुके हैं. काबिलियत नहीं तो कम से कम इतना तो आपके पिताजी का रुतबा है ही कि कहीं आप सिफारिश लगवा सकें.


फिर भी आप अक्सर परेशान हो जाते हैं. जीवन का मतलब खोजने लगते हैं. लगता है लाइफ में अच्छा नहीं कर रहे तो और पाना चाहते हैं. घर में काम भर के बर्तन हों तो सोफ़ा चाहते हैं. सोफा हो तो टीवी, टीवी हो तो गाड़ी. आपको ये नहीं सोचना पड़ता कि अगली खुराक में क्या खाएंगे.


आपका अगर पूरा बैंक अकाउंट खाली भी हो जाता है, तो उधार मिल जाता है. कितने भी बुरे दिन आ जाएं, कभी आपकी इज्ज़त नहीं जाती. दोस्त कभी ये नहीं कहते कि मेरे घर में सोफे पर क्यों बैठे हो, जमीन पर बैठो.


क्योंकि आप ऊंची जात के हैं. आप भले ही किसी झाड़ू-पोंछा करने वाले दलित से गरीब हो जाएं, लोग आपका अपमान नहीं करेंगे. ये आप की जाति का असर है. आपने इसे चुना नहीं है, पाया है. इसी तरह अगर आप दलित हैं, तो भी आपने उसे चुना नहीं, पाया है.

 


Members of the Dalit community stick slogans on their chests during an International Human Rights rally in Kathmandu December 10, 2009. The signs read, “Where are the human rights of untouchables?”, “One-fourth of the country’s untouchables are ignored, do not lie to the world” and “Implement universal human rights or else declare the country untouchable” (L-R). The people known as the Dalits are traditionally regarded as the lowest caste in the Hindu social community. REUTERS/Navesh Chitrakar


फर्क सिर्फ इतना है कि ऊंची जाति वालों को विरासत में सम्मान मिलता है और नीची जाति वालों को अपमान.


हम अक्सर कहते हैं कि अब जातिवाद कहां रह गया है. हम कहते हैं कि शहरों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट में हर तरह के लोग एक दूसरे के साथ ट्रेवल कर रहे होते हैं. कोई किसी की जाति पूछता है क्या. हम अक्सर ये भी कहते हैं कि आरक्षण की क्या जरूरत है. कि आरक्षण से केवल कुछ जातियों को वो फायदा मिलता है जिसके वो हक़दार नहीं हैं, कुछ लोग ये भी कहते हैं कि अगर आरक्षण न होता, मेरा सिलेक्शन हो गया होता.


जब हम कहते हैं कि अब लोग खुली सोच के हैं, दलितों से भेदभाव नहीं होता, हम शायद अपने गांवों, घरों को भूल जाते हैं. जहां आज भी बाथरूम साफ़ करने वालों को पैसे हाथ में नहीं पकड़ाए जाते. अलग रख दिए जाते हैं, जिसके आपकी गैरमौजूदगी में वो उसे खुद उठा लें. जहां नौकरों के कप और बर्तन अलग कर दिए जाते हैं. जहां मजदूरों के लिए चाय तो बनती है, मगर उन्हें दी डिस्पोजेबल कप में जाती है.


फिर आप ये कहते हैं कि वो लोग गंदे होते हैं न. असल में हमारे जिस मल-मूत्र को वो साफ़ कर रहे होते हैं, वो हमारे ही शरीर से निकला होता है. जब हमारे बच्चे कपड़ों में टट्टी कर देते हैं, हम उन्हें गंदा कहकर उनसे दूर नहीं भागते. मगर मल साफ़ करने वालों के प्रति हमारे अंदर एक अजीब सी घिन भरी होती है. वही मल, जो हम उन्हें देते हैं, जो हमारे घरों की नालियों से उन तक पहुंचता है.


कभी मल साफ़ करने वालों के जीवन का एक मिनट भी जिया है?


एक लड़के ने ऐसा किया. सीवर के पानी में उतर गया. सीवर साफ़ करने वालों से बात की.



ये समदीश भाटिया हैं. इन्होंने ‘चेज’ के लिए एक डाक्यूमेंट्री बनाई है. डाक्यूमेंट्री का नाम है ‘डीप शिट’. अंग्रेजी में ये दो शब्द हम अक्सर यूज करते हैं. कभी किसी मुसीबत में होते हैं, कहते हैं, ‘आई एम इन डीप शिट.’ शिट मतलब मल या गंदगी. इस अंग्रेजी वाक्य में ‘शिट’ किसी की मुश्किलों का रूपक है. मगर ये डाक्यूमेंट्री देखकर आप जानेंगे कि असल में ‘डीप शिट’ यानी मल के दलदल में धंसे होने का क्या मतलब होता है.

 


‘हम इसे संडास नहीं बोलते. संडास बोलने में बुरा लगता है. इसे हम देसी घी के परांठे बोलते हैं.’

‘मैं ये काम नहीं करूंगा तो मालूम बम्बई का क्या होइंगा? लाखों, करोड़ों लोग बीमार पड़ेगा.’

-राजू, 54, सीवेज वर्कर


ये काम किसे पसंद आता है, मगर करना पड़ता है… गर्लफ्रेंड को नहीं पता ये काम करता हूं. बताने में शर्म आती है.

-सुमित, 19, सीवेज वर्कर



Source: Chase

‘रोज रात को दारू पीता हूं, ताकि दिनभर जो देखता हूं उसे भूल जाऊं.’

-राजू, 54, सीवेज वर्कर


‘हम हाईवे बनाना चाहते हैं तो बन जाते हैं न? सिक्स लेन, एट लेन, बारह लेन रोड बना लेते हैं. उसका पैसा होता है. नालियां बनाने का पैसा नहीं होता क्या? इसका एक ही मतलब है. आप बनाना ही नहीं चाहते.’

-बेजवाडा विल्सन, फाउंडर, सफाई कर्मचारी आंदोलन


‘हर दलित सफाई कर्मचारी नहीं है. लेकिन हर सफाई कर्मचारी दलित है. हमारी पिछली तीन पीढियां सफाई कर्मचारी रही हैं. पिताजी हर शाम काम करने बाद जब घर आते, शराब पिए होते थे. मां को पीट देते थे. मगर उनको पूरा दोष नहीं देता. दिन भर गंदगी में काम करते थे. स्ट्रेस में आकर गुस्सा कहां निकालेंगे?’

-सुनील, पीएचडी स्टूडेंट और सफाई कर्मचारी


‘मेरे पिता सीवर साफ़ करने घुसे. उसके अंदर की गैस की वजह से मर गए.’

-सुमीत, बेटा



Source: Chase



‘भगवान की मिट्टी से बना हूं. भगवान ने ये काम दिया है मुझे.’

-सौरव, नाला सफाई वर्कर

 

देखिए डाक्यूमेंट्री:

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