‘राम नाम के हीरा मोती लूट सके तो लूट’
लेकिन पॉलिटिकल फरमे में कोई हल्का व्यंग्यकार कह दे कि ‘राम नाम के वोट हैं काफी, लूट सके तो लूट’, तो गलत नहीं होगा. राजनीति में राम के डेब्यू के बाद से उनकी भक्ति पर बड़े-बड़े दावे किए गए हैं. लेकिन आपको बताते हैं उनके बारे में, जो एक समय सबसे बड़े राम भक्त कहलाते थे और इसमें कहीं कोई राजनीति नहीं थी.
ये है हिंदुस्तान का ‘रामनामी’ समुदाय. इस समुदाय के लोग पूरे शरीर पर, यहां तक कि जीभ और होठों पर भी ‘राम नाम’ गोदवा लेते थे.
शरीर पर राम नाम का टैटू (गोदना), रामनामी चादर, मोरपंख की पगड़ी और घुंघरू इनकी पहचान थी. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की भक्ति और गुणगान ही इनकी जिंदगी का एकमात्र मकसद था. भजन गाते और मस्त रहते. यह ऐसी संस्कृति थी, जिसमें राम नाम को कण-कण में बसाने की परपंरा रही. पूर्वी मध्य प्रदेश, झारखंड के कोयला क्षेत्र और छत्तीसगढ़ में फैले रामनामी समुदाय ने एक सदी तक इस अनूठी परंपरा को बचाए रखा. फिर कई वजहों से उनकी संख्या घटती चली गई.
लंबे समय तक ये बदलाव की हवा से अछूते और आदिम रीति-रिवाजों और परंपराओं से जकड़े हुए रहे. लेकिन बाद के दौर में नई पीढ़ी इन परंपराओं से बचने लगी. रायगढ़, रायपुर और बिलासपुर जिले के रामनामियों में दो दशक पहले ही आधुनिकता ने पैठ बनानी शुरू कर दी थी. पक्की सड़कों, डाक और बिजली के खंभों के जरिये वे शहरों से जुड़ गए और फिर उनकी प्राथमकिताएं बदल गईं. पूरे शरीर पर राम नाम गोदने की परंपरा तो अब लगभग खत्म ही हो चुकी है.
अछूत होने की निशानी बन गया गोदना
फिर भी इस परंपरा की कहानी आकर्षित करती है. दरअसल इस आस्था की जड़ें ऐतिहासिक छुआछूत और जातीय भेदभाव में हैं. कभी अटूट निष्ठा का प्रतीक रहा इनका गोदना इनके अछूत (दलित) होने की पहचान बन गया था.अक्टूबर 1992 में ‘इंडिया टुडे’ के एक अंक में इन पर स्टोरी छपी थी. इस स्टोरी में रामनामी समुदाय के गजानंद प्रसाद बंजारा कहते हैं कि राम नाम गोदवाने, रामनामी चादर और पंखों की पगड़ी से उनकी जाति पता चलती है और वे पिछड़ी जातियों से होने वाले बुरे बर्ताव के शिकार बन जाते है. बहुत संभव है कि इस जातीय पहचान से बचने के लिए भी बहुत सारे लोगों ने राम नाम गोदवाना छोड़ दिया हो.
पर इसका किस्सा क्या है?
कहा जाता है कि 19वीं सदी के आखिर में हिंदू सुधार आंदोलन के दौरान इन लोगों ने ब्राह्मणों के रीति-रिवाज अपना लिए. इससे ब्राह्मणों का गुस्सा भड़क उठा. उनके गुस्से से त्रस्त रामनामियों ने सचमुच राम नाम की शरण ली. वे उन दीवारों के पीछे जा छिपे, जिन पर राम नाम अंकित था. जब ये दीवारें भी ब्राह्मणों की प्रताड़ना से उन्हें नहीं बचा पाईं तो उन्होंने शरीर पर राम नाम गोदाने को आखिरी हथियार के तौर पर अपनाया कि शायद यह कोई चमत्कार दिखाए.माना जाता है कि छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा के चारपारा गांव में एक दलित युवक परसराम ने 1890 के आसपास रामनामी संप्रदाय की स्थापना की. इसे भक्ति आंदोलन से जोड़ा जाता है, लेकिन इसे सामाजिक और दलित आंदोलन के रूप में देखने वालों की संख्या भी कम नहीं है.
राम की राजनीति से रिश्ता नहीं
कुछ लोग मानते हैं कि रामनामी एक महत्वपूर्ण आंदोलन का हिस्सा हैं क्योंकि ब्राह्मणों की घृणा और तिरस्कार के खिलाफ उन्होंने महात्मा गांधी की अहिंसक शैली में विद्रोह किया. बाबरी ढांचा गिराए जाने से काफी पहले जब कुछ कट्टर राम भक्त राम मंदिर के लिए शिलाएं जुटाने ग्वालिंदी आए तो यहां के रामनामियों ने भी खुशी खुशी एक शिला दी थी. वैसे अगर कोई ईसाई पादरी खंभा मांगने पहुंचता तो उसे भी निराश नहीं लौटना पड़ता. 23 साल पहले की ‘इंडिया टुडे’ की स्टोरी में सोनारिन बाई बंजारे का यह कथन काबिले-गौर है कि ‘मेरा ईश्वर भी औरों के भगवान की तरह है. मैं केवल उसे राम कहकर पुकारती हूं.’यह पढ़कर अवधी कवि आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ याद आते हैं:
लरिकै राह निहारत होइहैं, चल जिउ अपने गांव चली
ऊ अपनी सरधा कै मंदिर, चल धुरियाये पांव चली
मजहब की छाती पर बैठा भल भै कोदौं दरे रहैं
हमरे राम क धरम न पूछैं, एत्ती किरपा करे रहैं
सोर्स:लल्लनटॉप.कॉम
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