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भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के समय से ही कश्मीर एक विवादित क्षेत्र रहा है। आज कश्मीर जिस मुहाने पर खड़ा है, इतिहास में इसके लिए कई लोगों को दोषी माना जाता है। कश्मीर की कहानी बड़ी ही सरल लेकिन जटिलताओं से भरी हुई है। आज अगर कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है, तो इसका श्रेय उस शख्स को जाता है, जिसने अपनी जान कुर्बान कर दी।



आज हम आपको उसी शख्स के बारे में बताएंगे, जिसका ज़िक्र इतिहास में विरले ही किया जाता है। अगर किया भी जाता है तो उस रूप में नहीं किया जाता, जिसके वे हकदार हैं। धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर आज पूरी तरह से पाकिस्तान के कब्जे में होता, अगर कश्मीर रियासत के सेनाध्यक्ष राजेंद्र सिंह नहीं होते।







तो चलिये, कहानी की शुरूआत करते हैं...





जम्मू के इस वीर सपूत के मसले को समझने के लिए इसकी जड़ तक जाना होगा। यानी 70 साल पीछे जब भारत ने आज़ादी का सूरज देखा था। 



दरअसल, आज़ादी से पहले भारत 565 छोटी-बड़ी रियासतों में बंटा हुआ था। इन रियासतों का अपना क़ानून, अपनी सेना और अपने राजा थे। 15 अगस्त 1947 आते-आते आधे से ज़्यादा रियासतें भारत में सम्मलित हो गईं, लेकिन कुछ रियासतों ने आज़ाद रहने का फ़ैसला किया। 



इन कुछ रियासतों में जम्मू-कश्मीर की रियासत भी शामिल थी। भारत सरकार ने कई बार कश्मीर से भारत में सम्मलित होने की गुज़ारिश की लेकिन यह सभी कोशिशें नाकाम रहीं।





कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी, लेकिन राज करने वाला अल्पसंख्य हिंदू। यही कारण था कि पाकिस्तान की शुरू से यह कोशिश थी कि मुस्लिम बहुल रियासत होने के कारण कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाए। लेकिन कश्मीर के राजा हरि सिंह कश्मीर को आज़ाद रखने के पक्ष में थे। 



भारत सरकार बार-बार हरि सिंह को समझाने की कोशिश कर रही थी कि वे भारत में शामिल हो जाएं, लेकिन हरि सिंह मानने को तैयार ही नहीं थे। भारत ने उन्हें पाकिस्तान के नापाक मंसूबों से भी आगाह किया लेकिन बेनतीजा ही रहा।



पाकिस्तान के शासक मोहम्मद अली जिन्ना को कश्मीर की आज़ादी मंज़ूर नहीं थी। उन्होंने नियमों का उल्लंघन कर 'Standstill Agreement' को तोड़ दिया और कश्मीर में पेट्रोल, अनाज और कई अन्य ज़रूरी वस्तुओं की सप्लाई रोक दी। अब यह साफ हो गया था की पाकिस्तान कश्मीर को अपने साथ मिलाने के लिए ताक़त का इस्तेमाल करना चाहता है। यह अंदेशा जल्द ही 22 अक्टूबर 1947 को सच साबित हो गया।






हथियारों से लैस क़बाइली पाकिस्तान की तरफ से श्रीनगर के लिए रवाना हो गये, दूसरी ओर कश्मीर रियासत के अंदर भी बग़ावत हो गई। रियासत के मुस्लिम सैनिकों ने कश्मीर की सेना छोड़ पाकिस्तानी क़बाइलियों से हाथ मिला लिया। आक्रमणकारी जल्द ही मुज़फ़्फ़राबाद तक पहुंच गये, यानि श्रीनगर से मात्र 164 किलोमीटर दूर।



अब बस कुछ ही पलों में पूरे जम्मू-कश्मीर पर कबाइलियों का कब्जा होने ही वाला था। मतलब पाकिस्तान का कश्मीर पर कब्ज़ा। अब महाराजा हरि सिंह को कबाइलियों से कश्मीर को बचाने के लिए भारत की मदद चाहिए थी। 



इधर भारत सरकार का कहना था कि जब तक कश्मीर के राजा 'Instrument Of Accession' पर हस्ताक्षर नहीं कर देते, तब तक वे कोई भी कदम नहीं उठा सकते। स्थिति काफ़ी विकट थी। तुरंत कोई निर्णय लेना था। उधर कबाइली कश्मीर पर कब्जे के इरादे से आगे बढ़ रहे थे। कश्मीर अब पूरी तरह से पाकिस्तान के कब्ज़े में जाने ही वाला था।



लेकिन देश के पहले महावीर चक्र विजेता और कश्मीर के रक्षक कहलाने वाले ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह जंवाल ने जो किया, उसका परिणाम यह है कि आज कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।



जब उन्होने भांप लिया कि क़बाइलि श्रीनगर से ज़्यादा दूर नही हैं, तो उन्होंने उरी से बारामूला और श्रीनगर को जोड़ने वाले पुल को ही धमाके से उड़ा दिया। इसकी वजह से करीब दो दिन तक हमलावर आगे नहीं बढ़ पाए।



 खैर, जब तक भारतीय सेना कश्मीर में अपनी सेना भेजती, तब तक दुश्मनों को रोकने में राजेंद्र सिंह कामयाब रहे। लेकिन हमलावरों से मुठभेड़ में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह शहीद हो गये। हालांकि, राजेंद्र सिंह कश्मीर को बचाने में सफल रहे। 




उनकी मौत के बाद भारतीय सेना ने कश्मीर से पाकिस्तानी कबाइलियों को खदेड़ दिया। जिसके बाद अभी भारत अधिकृत जो कश्मीर दिख रहा है, वह आज़ाद हो पाया।





उनके इसी फैसले और शहादत के कारण कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनने से बचा। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को शहीद होने के बाद देश के पहले महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।




 इतिहास में भी कुछ जगहों पर इस बात को रेखांकित किया गया है कि अगर राजेंद्र सिंह नहीं होते तो कश्मीर भारत का नहीं, बल्कि पाकिस्तान का हिस्सा होता। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने जो किया, उसे आज याद रखने की ज़रूरत है...




सोर्स:फिरकी.इन 

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