loading...






युद्ध कभी शांति नही दे सकता। हिरोशिमा का नाम तो सुना होगा। वहां आज भी उस विनाशकारी युद्ध से पनपे गहरे जख्म भरे नहीं हैं। 1945 में अमेरिका द्वारा जापान के दो शहरों पर छोड़े गये परमाणु बम ने धरती की तस्वीर बदल के रख दी। इतिहास ने भी यह माना है कि यह युद्ध नहीं बल्कि एक नरसंहार था, जिसमें इंसानियत का नाम मिटाने के लिए परमाणु शक्तियों का इस्तेमाल सीधे मानवजाति पर किया गया था।











फिर आया 1960 का दशक। जब शीतयुद्ध के दौर में अमेरिका की परमाणु ताकत सोवियत रूस के मुकाबले कई गुना ज्यादा थी।



अमेरिका के पास रूस को निशाना बना सकने वाली लंबी दूरी की 170 से ज्यादा अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें थीं, जबकि सोवियत रूस के पास ऐसी दर्जनभर मिसाइलें ही थीं। ताकत के इस अंसुतलन को दूर करने के लिए सोवियत संघ के नेता निकिता ख्रुश्चेव ने अमेरिका के पड़ोसी कम्युनिस्ट देश क्यूबा में गुपचुप तरीके से रूसी परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं।




ऊंचाई पर उड़ने वाले अमेरिकी खोजी विमानों ने क्यूबा में इन मिसाइलों की तैनाती का पता लगा लिया। इसके साथ ही 16 अक्टूबर 1962 को क्यूबा मिसाइल संकट की शुरुआत हो गई। रूसी परमाणु हमले की आशंका में अमेरिका में खौफ का माहौल बन गया।







1962 में क्यूबा के मिसाइल संकट को आमतौर पर एक ऐसा ऐतिहासिक बिंदु मना जाता है, जिसपर विश्व युद्ध 3 का जोखिम सबसे करीब सोचा गया था। जानकारो के अनुसार उस वक़्त 13 दिन तक दुनिया पर तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा मंडराता रहा था। उस वक़्त अगर सोवियत नौसेना के एक अधिकारी ने इस परमाणु सामरिक युद्ध को टाला नहीं होता तो आज दुनिया की तस्वीर कुछ और ही होती।



वैसिली अलेक्जेंडरोविच आर्खिपोव एक सोवियत नौसेना अधिकारी थे। वे एक परमाणु हथियारों से लैस पनडुब्बी में सवार थे, जिसको अमेरिका पर परमाणु हमला करने के आदेश मिल चुके थे। लेकिन अरखिपोव के एक समझदारी भरे फैसले ने विश्व को संभवतः सबसे बड़े विनाश से बचा लिया।








आर्खिपोव कैरेबियन सागर में परमाणु हथियारों से लैस सोवियत पनडुब्बी बी-59 के जहाज पर दूसरे कमांडिंग अधिकारी थे। इससे पहले उनका ताल्लुक हिरोशिमा से भी जुड़ा है। जब उन्होने परमाणु बैलिस्टिक मिसाइल से लैस एक पनडुब्बी के-19 को कूलेंट रिएक्टर के विफल हो जाने के बाद ध्वस्त हो जाने से बचाया था। हालांकि इस दुर्घटना में वे परमाणु रेडीयेशन फैलने के कारण बुरी तरह से ज़ख्मी हो गए और पनडुब्बी में सवार उनके ज्यादातर साथी मारे गए थे।



जब आर्खिपोव अकेले डटे रहे परमाणु बम के ना छोड़े जाने के फैसले पर


संयुक्त राज्य अमेरिका की विध्वंसक नौसेना और घातक विमान वाहक पोत के एक लड़ाकू बेड़े को ये ज्ञात हो जाता है कि सोवियत फ़ाक्सत्रोट-वर्ग की परमाणु हथियारों से लैस एक पनडुब्बी बी-59 क्यूबा के पास स्थित है।








इस पर सोवियत मिसाइलों की तैनाती के जवाब में अमेरिका ने क्यूबा के समुद्री इलाके की घेराबंदी कर दी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार अमेरिकी परमाणु मिसाइलों को आपात स्थिति में ले आया गया। इस आपात स्थिति के तहत अमेरिकी सेनाओं को हमले की इजाजत मिल जाती है।



इटली और तुर्की के गुप्त अमेरिकी अड्डों में परमाणु मिसाइलों का मुंह सोवियत संघ की तरफ मोड़ दिया गया। 13 दिन तक समूची दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका में कांपती रही। लेकिन आर्खिपोव और पनडुब्बी सोवियत बी-59 के जहाज में कुछ और ही चल रहा था।


जिस सोवियत जहाज बी-59 में आर्खिपोव तैनात थे उसके कैप्टन सविट्स्की थे। उनको युद्ध की स्थिति में अमेरिका पर परमाणु टारपीडो दागने के सीधे आदेश मिले थे, जिसके लिए सिर्फ राजनीतिक अधिकारी की ही सहमति लेनी होती थी।






इधर अमेरिका बेड़ा सोवियत पनडुब्बी बी-59 को नेस्तनाबूद करने के लिए मिसाइलों का उपयोग कर रहा था। मिसाइलों के प्रहार से बचने के लिए सोवियत जहाज बी-59 समुंदर के बहुत गहराई में चला गया, जहां रेडियो सिग्नल प्रणाली कार्य करने में विफल थी। युद्ध की स्थिति बनते देख कैप्टन सविट्स्की ने आदेशानुसार परमाणु मिसाइल दागने की योजना बना ली।



हालांकि, नियम यह भी कहते थे कि युद्ध की स्थिति में किसी राजनीतिक अधिकारी से भी परमर्श ली जाए। चूंकि आर्खिपोव इससे पहले परमाणु संबंधित मामले में बखूबी के-19 पनडुब्बी में अपनी अहम भूमिका निभा चुके थे, इसलिए उन्होने कैप्टन सविट्स्की को राज़ी कर लिया क़ि वो मास्को से आदेश आजाने तक इंतज़ार कर ले। आर्खिपोव परमाणु से हुए विनाश को जानते थे। उनके एक परामर्श ने तीसरे विश्वयुद्ध होने से बचा लिया था।







इसी बीच पूरी दुनिया की तरफ से दोनों मुल्कों पर समझौते का भारी दबाव पड़ा। आखिरकार एक गुप्त समझौते के तहत सोवियत संघ ने क्यूबा से मिसाइलें हटाने का फैसला किया, जिसके जवाब में अमेरिका ने जगह-जगह तैनात अपनी मिसाइलें भी हटाने की सहमति दे दी। अगर उस वक्त आर्खिपोव ने युद्ध की स्थिति में परमाणु बम दागने का नियम ना तोड़ा होता तो शायद आज धरती की तस्वीर कुछ और होती।



आर्खिपोव का जीवन


आर्खिपोव ने 1980 के मध्य तक सोवियत नौसेना को अपनी सेवाएं दी। उनको 1975 में रियर एडमिरल के पद पर पदोन्नत किया गया और उनकी 1975 में 73 साल की उम्र में मृत्यु हो गई।





सोचिए अगर आर्खिपोव ने आदेश ना मानने की ग़लती या मानवता की नज़र में वह एक समझदारी ना की होती तो आज धरती की तस्वीर कैसी होती? अपनी राय दीजिए।



सोर्स:टॉप याप्स 



loading...

एक टिप्पणी भेजें

योगदान देने वाला व्यक्ति

Blogger द्वारा संचालित.