24 फ़रवरी 2010. ग्वालियर. दूसरा वन-डे. वो हो
चुका था, जो अब तक नहीं हुआ था. सचिन तेंदुलकर 200 रन बना चुके थे. उस मैच
में जो महज़ 50 ओवर का खेला जाता है. क्रिकेट के इतिहास में पहली बार. किसी
बैट्समैन ने एक वन-डे मैच में 200 रन बनाये थे. रवि शास्त्री माइक पकड़े हुए
चीख रहे थे. “First man on the planet to reach 200 and it’s the superman from India. Sachin Tendulkar.” देश
चिल्ला रहा था. ट्वीट्स आ रहे थे. दुनिया भर के प्लेयर्स सचिन को बधाई दे
रहे थे. इनिंग्स खतम होने पर टीवी की स्क्रीन पर एक तस्वीर दिखाई पड़ती है.
सचिन तेंदुलकर वापस जा रहे थे. उसी वक़्त एक ग्राउंड स्टाफ़ आया और उनके
सामने दंडवत हो गया. ऐसे जैसे सामने सचिन नहीं भगवान हों. खैर, मानने वाले
सचिन को ही क्रिकेट का भगवान मानते हैं. मैथ्यू हेडेन भी. और भगवान उस दिन
ग्वालियर में रूप सिंह स्टेडियम में अपनी लीला दिखा रहे थे.
रूप सिंह स्टेडियम. जिसका नाम एक हॉकी प्लेयर के नाम पर रक्खा गया. रूप सिंह. भारतीय हॉकी प्लेयर. ध्यानचंद के भाई. ध्यानचंद का भाई होना रूपसिंह के लिए जितनी खुशकिस्मती की बात थी, उतनी ही बदकिस्मती की भी. उन्हें हमेशा ही ध्यानचंद का भाई कहकर बुलाया गया. जो उतना भी बुरा नहीं है. लेकिन जब आप ताउम्र किसी की परछाईं में ही दबकर रह जायें तो दुख ज़रूर होता है.
एक शानदार लेफ़्ट-इन प्लेयर जो गेंद को इतनी जोर से मारने में यकीन रखता था कि गोल पोस्ट में आग लग जाए. ड्रिब्लिंग ऐसी कि गेंद पकड़नी तो क्या देखनी मुश्किल हो. और दौड़ ऐसी कि पीछा करने की सोचने से भी पहले आदमी हार मान ले. सर्किल के अन्दर रूप सिंह वही थे, जो रिंग के अन्दर मुहम्मद अली होते थे. उनसे पार पाना किसी के बस की नहीं. शॉर्ट कॉर्नर रूप सिंह के लिए खीर पूड़ी समान थे. देखते ही जुट जाते थे. और उनकी कॉर्नर को गोल में तब्दील कर देने की आदत एकदम वैसी ही थी जैसी सचिन को सर सीधा रखते हुए स्ट्रेट ड्राइव मारने की आदत थी. वही सचिन तेंदुलकर जिसने रूप सिंह के नाम वाले स्टेडियम में दुनिया को वन डे मैचों में डबल सेंचुरी मारना सिखाया था.
ध्यान चंद, जिन्होंने एक बार अम्पायर से इस बात पर बहस कर ली थी कि गोल पोस्ट की ऊंचाई कम है जिसकी वजह से उनकी मारी गेंदें बार-बार गोल पोस्ट के ऊपर वाले बार से टकरा कर वापस आ रही थीं. जब नापा गया तो मालूम चला कि ध्यान चंद सही थे. गोल पोस्ट सचमुच नीचा था. इस तरह की करिश्माई विधा के मालिक ध्यान चंद से जब भी रूप सिंह के बारे में बात की गयी, उन्होंने रूप सिंह को अपने से कहीं बेहतर हॉकी प्लेयर बताया. वो कहते थे, “मैं रूप चंद के आस-पास भी नहीं फटकता.” और ये बात सच भी है. ध्यान चंद को जिन जगहों और एंगलों से गोल मारने में दिक्कत होती थी, उन जगहों से गोल मारने में रूप सिंह का कोई तोड़ नहीं था.
रूप सिंह और ध्यान चंद के बीच हमेशा एक ऐसी रिलेशनशिप रही जिसे दोस्ताना या कटुता की श्रेणी में रखना मुश्किल रहेगा. सबसे पहली बात, ये कहा जाता रहा है कि ध्यान चंद ने रूप सिंह को हॉकी सिखाई, ग़लत है. रूप सिंह को हॉकी खुद रूप सिंह ने सिखाई. दोनों ही प्लेयर्स ने एक साथ हॉकी खेलना अरसे बाद शुरू किया. मैदान पर ध्यान चंद से मिलने के बाद उनकी हॉकी और दुरुस्त होने लगी. वो ध्यान चंद के खेल को बारीकी से देखते थे. उनको खेलते हुए देख सीखते थे. और साथ ही उनकी बातों को ध्यान से सुनते थे. ध्यान चंद भी जितना ज्ञान हो सकता था, देते रहते थे.
मैच के दौरान दोनों ही के बीच एक अजीब तरह का खेल चल रहा होता था. ध्यान चंद को रूप सिंह की गेंद को तेज़ मारने की आदत कतई पसंद नहीं थी. वो बार-बार रूप सिंह को इस बात के लिए टोकते रहते थे. एक बार रूप सिंह की मारी गेंद किसी दर्शक को जाकर लग गयी. ध्यान चंद बरस पड़े. उन्होंने रूप सिंह को बाहर बिठा दिया. कहने लगे कि हम जिन लोगों के लिए खेल रहे हैं, उन्हें चोट देकर नहीं खेल सकते. 1930 में वेलिंग्टन में खेले जा रहे एक मैच में रूप सिंह अपने पूरे भौकाल में खेल रहे थे. वो खेल में इतना मगन थे कि दोनों फ्लैंक से खेलने लगे. जहां गेंद जा रही थी, रूप सिंह वहीं पाए जा रहे थे. ध्यानचंद को जैसे ही मौका मिला, उन्होंने शिव नारायण और रूप सिंह को अपने पास बुलाया. शिव नारायण राइट फ्लैंक से खेलता था. उन्होंने शिव नारायण से कहा कि वो जाकर बेंच पर बैठ जाए. क्यूंकि रूप सिंह उसके फ्लैंक से भी खेल रहे थे. रूप सिंह को ध्यानचंद का इशारा समझ में आ गया. वो अपने हिस्से के मैदान में ही खेलने लगे.
1936 का बर्लिन ओलंपिक. इंडिया चैम्पियन बना. इंडिया का तीसरा गोल्ड मेडल. ध्यान चंद और रूप सिंह के कुल ग्यारह-ग्यारह गोल थे. सबसे ज़्यादा. लेकिन खेल रूप सिंह का देखने लायक था. 36 साल बाद 1972 में जब म्यूनिख़ ओलंपिक में ध्यानचंद का बेटा अशोक कुमार हॉकी खेल रहा था, उसी वक़्त म्यूनिख़ ओलंपिक स्टेडियम कॉम्प्लेक्स में एक सड़क का नाम रूप सिंह के नाम पर रख दिया गया था. रूप सिंह और ध्यानचंद उस ओलंपिक में बतौर मेहमान बुलाये भी गए थे. मगर वो पहुंच न सके. ध्यानचंद की आंख का ऑपरेशन हुआ था और रूप सिंह की तबीयत नासाज़ चल रही थी. इस पर ओलंपिक कमेटी ने रूप सिंह को उनके नाम पर बनाई गयी सड़क दिखाने के लिए म्यूनिख़ ओलंपिक का पूरा नक्शा भेजा.
खेल के मैदान में इतनी ख्याति पाने के बावजूद रूप सिंह की अपने देश में काफ़ी दुर्गति हुई. इंडियन हॉकी फेडरेशन ने उन्हें वो मान नहीं दिया जिसके वो हक़दार थे. पैसों की कमी हमेशा रही. हालात तब और भी बिगड़ गए जब उन्हें ट्यूबरक्युलॉसिस हो गया. पैसों के लिए उन्हें अपने गोल्ड और सिल्वर मेडल बेचने पड़े. भारतीय हॉकी के लिए ये शायद सबसे शर्मनाक पल रहा होगा.
रूप सिंह को आज ध्यानचंद के भाई के नाम से और उनके नाम पर बने हॉकी स्टेडियम को क्रिकेट स्टेडियम में तब्दील करने के बाद सचिन की डबल सेंचुरी वाले मैदान के नाम से जाना जा रहा है. लेकिन फिर भी बर्लिन की ज़मीन आज भी रूप सिंह को भूली नहीं होगी.
सोर्स:लल्लनटॉप
रूप सिंह स्टेडियम. जिसका नाम एक हॉकी प्लेयर के नाम पर रक्खा गया. रूप सिंह. भारतीय हॉकी प्लेयर. ध्यानचंद के भाई. ध्यानचंद का भाई होना रूपसिंह के लिए जितनी खुशकिस्मती की बात थी, उतनी ही बदकिस्मती की भी. उन्हें हमेशा ही ध्यानचंद का भाई कहकर बुलाया गया. जो उतना भी बुरा नहीं है. लेकिन जब आप ताउम्र किसी की परछाईं में ही दबकर रह जायें तो दुख ज़रूर होता है.
एक शानदार लेफ़्ट-इन प्लेयर जो गेंद को इतनी जोर से मारने में यकीन रखता था कि गोल पोस्ट में आग लग जाए. ड्रिब्लिंग ऐसी कि गेंद पकड़नी तो क्या देखनी मुश्किल हो. और दौड़ ऐसी कि पीछा करने की सोचने से भी पहले आदमी हार मान ले. सर्किल के अन्दर रूप सिंह वही थे, जो रिंग के अन्दर मुहम्मद अली होते थे. उनसे पार पाना किसी के बस की नहीं. शॉर्ट कॉर्नर रूप सिंह के लिए खीर पूड़ी समान थे. देखते ही जुट जाते थे. और उनकी कॉर्नर को गोल में तब्दील कर देने की आदत एकदम वैसी ही थी जैसी सचिन को सर सीधा रखते हुए स्ट्रेट ड्राइव मारने की आदत थी. वही सचिन तेंदुलकर जिसने रूप सिंह के नाम वाले स्टेडियम में दुनिया को वन डे मैचों में डबल सेंचुरी मारना सिखाया था.
ध्यान चंद, जिन्होंने एक बार अम्पायर से इस बात पर बहस कर ली थी कि गोल पोस्ट की ऊंचाई कम है जिसकी वजह से उनकी मारी गेंदें बार-बार गोल पोस्ट के ऊपर वाले बार से टकरा कर वापस आ रही थीं. जब नापा गया तो मालूम चला कि ध्यान चंद सही थे. गोल पोस्ट सचमुच नीचा था. इस तरह की करिश्माई विधा के मालिक ध्यान चंद से जब भी रूप सिंह के बारे में बात की गयी, उन्होंने रूप सिंह को अपने से कहीं बेहतर हॉकी प्लेयर बताया. वो कहते थे, “मैं रूप चंद के आस-पास भी नहीं फटकता.” और ये बात सच भी है. ध्यान चंद को जिन जगहों और एंगलों से गोल मारने में दिक्कत होती थी, उन जगहों से गोल मारने में रूप सिंह का कोई तोड़ नहीं था.
रूप सिंह और ध्यान चंद के बीच हमेशा एक ऐसी रिलेशनशिप रही जिसे दोस्ताना या कटुता की श्रेणी में रखना मुश्किल रहेगा. सबसे पहली बात, ये कहा जाता रहा है कि ध्यान चंद ने रूप सिंह को हॉकी सिखाई, ग़लत है. रूप सिंह को हॉकी खुद रूप सिंह ने सिखाई. दोनों ही प्लेयर्स ने एक साथ हॉकी खेलना अरसे बाद शुरू किया. मैदान पर ध्यान चंद से मिलने के बाद उनकी हॉकी और दुरुस्त होने लगी. वो ध्यान चंद के खेल को बारीकी से देखते थे. उनको खेलते हुए देख सीखते थे. और साथ ही उनकी बातों को ध्यान से सुनते थे. ध्यान चंद भी जितना ज्ञान हो सकता था, देते रहते थे.
मैच के दौरान दोनों ही के बीच एक अजीब तरह का खेल चल रहा होता था. ध्यान चंद को रूप सिंह की गेंद को तेज़ मारने की आदत कतई पसंद नहीं थी. वो बार-बार रूप सिंह को इस बात के लिए टोकते रहते थे. एक बार रूप सिंह की मारी गेंद किसी दर्शक को जाकर लग गयी. ध्यान चंद बरस पड़े. उन्होंने रूप सिंह को बाहर बिठा दिया. कहने लगे कि हम जिन लोगों के लिए खेल रहे हैं, उन्हें चोट देकर नहीं खेल सकते. 1930 में वेलिंग्टन में खेले जा रहे एक मैच में रूप सिंह अपने पूरे भौकाल में खेल रहे थे. वो खेल में इतना मगन थे कि दोनों फ्लैंक से खेलने लगे. जहां गेंद जा रही थी, रूप सिंह वहीं पाए जा रहे थे. ध्यानचंद को जैसे ही मौका मिला, उन्होंने शिव नारायण और रूप सिंह को अपने पास बुलाया. शिव नारायण राइट फ्लैंक से खेलता था. उन्होंने शिव नारायण से कहा कि वो जाकर बेंच पर बैठ जाए. क्यूंकि रूप सिंह उसके फ्लैंक से भी खेल रहे थे. रूप सिंह को ध्यानचंद का इशारा समझ में आ गया. वो अपने हिस्से के मैदान में ही खेलने लगे.
1936 का बर्लिन ओलंपिक. इंडिया चैम्पियन बना. इंडिया का तीसरा गोल्ड मेडल. ध्यान चंद और रूप सिंह के कुल ग्यारह-ग्यारह गोल थे. सबसे ज़्यादा. लेकिन खेल रूप सिंह का देखने लायक था. 36 साल बाद 1972 में जब म्यूनिख़ ओलंपिक में ध्यानचंद का बेटा अशोक कुमार हॉकी खेल रहा था, उसी वक़्त म्यूनिख़ ओलंपिक स्टेडियम कॉम्प्लेक्स में एक सड़क का नाम रूप सिंह के नाम पर रख दिया गया था. रूप सिंह और ध्यानचंद उस ओलंपिक में बतौर मेहमान बुलाये भी गए थे. मगर वो पहुंच न सके. ध्यानचंद की आंख का ऑपरेशन हुआ था और रूप सिंह की तबीयत नासाज़ चल रही थी. इस पर ओलंपिक कमेटी ने रूप सिंह को उनके नाम पर बनाई गयी सड़क दिखाने के लिए म्यूनिख़ ओलंपिक का पूरा नक्शा भेजा.
खेल के मैदान में इतनी ख्याति पाने के बावजूद रूप सिंह की अपने देश में काफ़ी दुर्गति हुई. इंडियन हॉकी फेडरेशन ने उन्हें वो मान नहीं दिया जिसके वो हक़दार थे. पैसों की कमी हमेशा रही. हालात तब और भी बिगड़ गए जब उन्हें ट्यूबरक्युलॉसिस हो गया. पैसों के लिए उन्हें अपने गोल्ड और सिल्वर मेडल बेचने पड़े. भारतीय हॉकी के लिए ये शायद सबसे शर्मनाक पल रहा होगा.
रूप सिंह को आज ध्यानचंद के भाई के नाम से और उनके नाम पर बने हॉकी स्टेडियम को क्रिकेट स्टेडियम में तब्दील करने के बाद सचिन की डबल सेंचुरी वाले मैदान के नाम से जाना जा रहा है. लेकिन फिर भी बर्लिन की ज़मीन आज भी रूप सिंह को भूली नहीं होगी.
सोर्स:लल्लनटॉप
एक टिप्पणी भेजें