विशेषज्ञ कहते हैं कि मोटापे का बच्चों की सेहत के साथ ही साथ उनके मनोविज्ञान पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. बचपन का ‘बुढ़ापा’ एक ऐसी स्थिति है, जिसमें बच्चों का वजन उनकी उम्र और कद की तुलना में काफी ज्यादा बढ़ जाता है. भारत में हर साल बच्चों में मोटापे के एक करोड़ मामले सामने आते हैं. इस स्थिति को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन इलाज काफी हद तक मदद कर सकता है.
शरीर में वसा (फैट) जमने का सीधे तौर पर पता लगाने के तरीके कठिन हैं. मोटापे की जांच प्राय: बीएमआई पर आधारित होती है. बच्चों और किशोरों के लिए, ज्यादा वजन और मोटापे को बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) उम्र और लिंग विशेष के लिए नोमोग्राम का प्रयोग करके पारिभाषित किया जाता है.
बच्चों में मोटापे और सेहत पर इसके प्रतिकूल प्रभावों के बढ़ते प्रचार के कारण इसे एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे के रूप में मान्यता दी जा रही है. बच्चों में अक्सर ही मोटे के स्थान पर ज्यादा वजन शब्द का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि यह उनके और उनकी मनोवैज्ञानिक स्थिरता के लिए कम निंदित लगता है.
बचपन का मोटापा, जिसे बच्चों का मोटापा भी कहा जाता है, आमतौर पर खुद ही पहचाना जाता है, क्योंकि इसमें बच्चों का वजन असामान्य रूप से बढ़ता है. इस स्थिति को चिकित्सकीय तौर पर पता लगाने के लिए प्राय: लैब परीक्षण और इमेजिंग की जरूरत होती है.
बचपन का मोटापा आगे बढ़कर डायबिटीज, उच्च रक्तचाप और उच्च कोलेस्ट्रॉल का कारण बन सकता है. 70 प्रतिशत मोटे युवाओं में कार्डियोवेस्कुलर बीमारी का कम से कम एक जोखिमभरा कारक होता है. मोटे बच्चों और किषारों में हड्डियों और जोड़ों की समस्याओं, स्लीप एप्निया तथा निंदित महसूस करने और आत्म-सम्मान की कमी जैसी मनोवैज्ञानिक समस्याओं का जोखिम ज्यादा होता है.
फोर्टिस हॉस्पिटल के बैरिएटिक व मेटाबॉलिक सर्जरी के निदेशक, डॉ. अतुल एन.सी. पीटर्स कहते हैं, “जब बच्चों की बात आती है, तो ज्यादातर माता-पिता उन्हें छोटे और गोलमोल रूप में देखना पसंद करते हैं. अभिभावकों के हिसाब से, गोलमोल बच्चे क्यूट होते हैं. लेकिन क्यूट, गलफुल्ला बच्चा होना अलग बात है और ‘मोटा बच्चा’ होना दूसरी बात है.
उनका कहना है, “अभिभावकों को इनके बीच के अंतर को समझने की जरूरत है. मोटापे के अपने प्रतिकूल प्रभाव हैं, बच्चे के स्वास्थ्य पर भी और उसके मनोविज्ञान पर भी.”
उन्होंने आगे कहा, “बच्चों में मोटापे के कारण स्वास्थ्य पर काफी दीर्घकालिक प्रभाव पड़ते हैं. बच्चे ओर किषोर जो अपने बचपन में मोटे रहे हैं, उनके वयस्क होने पर भी मोटे ही रहने की ज्यादा संभावना होती है. इस वजह से वयस्क अवस्था में कई बड़ी स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं. जैसे कि हृदय रोग, टाइप 2 डायबिटीज, स्ट्रोक, विभिन्न प्रकार के कैंसर और ऑस्टियोआथ्र्राइटिस.”
डॉ. पीटर्स ने कहा, “चूंकि हमारे देश में यह सबसे तेजी से बढ़ रही समस्याओं में से एक है, इसलिए इससे पहले कि ये बच्चों को नुकसान पहुंचाएं हमें इसकी रोकथाम करनी चाहिए.”
उन्होंने आगे कहा, “बच्चे देश का भविष्य हैं, उन्हें सेहतमंद होना चाहिए और एक संतोषजनक और सुखी जीवन जीने और देश के कल्याण के लिए फिट भी होना चाहिए. सेहतमंद खानपान और शारीरिक गतिविधि सहित सेहतमंद जीवनशैली की आदतों को अपनाकर मोटा होने और इससे संबंधित बीमारियों के विकसित होने के जोखिम को कम किया जा सकता है.”
डब्ल्यूएचओ की चेतावनी :
इस साल के आरंभ में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आयोग ने, बच्चों में मोटापे की बढ़ती स्थिति पर ध्यान आकर्षित करते हुए, कहा कि बच्चों में मोटापा एक ‘भयावह दु:स्वप्न’ है.
बच्चों के मोटापे पर काम कर रहे विश्व स्वास्थ्य संगठन के आयोग ने पांच साल से कम उम्र के 4.1 करोड़ ज्यादा वजन वाले या मोटे बच्चों के होने की पुष्टि की है.
कई बच्चों की परवरिश ऐसे वातावरण में हो रही है, जहां उन्हें वजन बढ़ाने और मोटा होने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. डब्ल्यूएचओ के आयोग के अनुसार, पांच साल से कम उम्र के ऐसे बच्चे जिनका वजन ज्यादा है या जो मोटे हैं, उनकी संख्या 1990 में 3.1 करोड़ थी जो बढ़कर 4.1 करोड़ तक पहुंच चुकी है.
इस आंकड़े का अर्थ है कि वर्ष 1990 में 4.8 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2014 में पांच साल से कम उम्र के 6.1 प्रतिशत बच्चे मोटे या अधिक वजनदार हुए. इसी अवधि में भारत जैसे निम्न मध्य-आय वाले देशों में अधिक वजनदार बच्चों की संख्या बढ़कर दोगुनी हो गई, यानी 70.5 लाख से बढ़कर 1.55 करोड़.
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, दुनिया के सभी अधिक वजनदार और मोटे बच्चों में से लगभग 48 प्रतिशत एशिया में रहते हैं, और 25 प्रतिशत अफ्रीका में.
सोर्स:ABP न्यूज़
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