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महाराजा हरिसिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के संधिपत्र पर हस्ताक्षर किए थे (इसके लिए उन्हें गहरी नींद से जगाया गया था) लेकिन जिस तरह से अन्य तत्कालीन "डेस्प्यूटेड टेरिटरीज़" (हैदराबाद, भोपाल, त्रावनकोर, जूनागढ़, जोधपुर : जी हां, आज विश्वास करना कठिन है, लेकिन सन् 47 में जोधपुर भी एक डिस्प्यूटेड टेरीटरी था और वह पाकिस्तान में विलय चाहता था) का भारत में पूर्ण और निर्विवाद विलय हुआ था, उस तरह से कश्मीर का नहीं हो सका था। वास्तव में कश्मीर विवाद एक ऐसी गुत्थी है, जो भ्रामक परिस्थितियों की अनेकांतवादी व्याख्याओं से उपजी है।



एक हिंदू राजा के अधीन मुस्लिम बहुल आबादी वाला यह सूबा (जूनागढ़ में ठीक इससे उलट स्थिति थी) भारत और पाकिस्तान दोनों में विलय को तैयार नहीं था। अलबत्ता पुंछ इलाक़े के बाशिंदों का झुकाव पाकिस्तान की ओर था, तो घाटी और जम्मू में प्रो-इंडियन नेशनल कांफ्रेंस का प्रभाव था और उसके नेता शेख़ अब्दुल्ला नेहरू के गहरे दोस्त थे। जब कश्मीर पर क़बायलियों का हमला हुआ, तो बदहवासी के हालात में महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से सैन्य मदद मांगी।



स्वाभाविक रूप से सरकार ने कहा, मदद तभी मिलेगी, जब कश्मीर भारत में पूर्ण विलय को राज़ी होगा (सनद रहे, यह आग्रह नेहरू या पटेल का नहीं, बल्कि माउंटबेटन का था, जो तब डिफ़ेंस कमेटी ऑफ़ कैबिनेट के चेयरमैन थे)। महाराजा इसके लिए काफ़ी हद तक तैयार थे, लेकिन क्या अवाम तक उनका यह पैग़ाम पहुंचा? और शेख़ अब्दुल्ला इसे क्या समझ रहे थे? विलय के संधिपत्र में साफ़ शब्दों में लिखा है : "आपातकालीन परिस्थितियों में निर्मित हो रही अंतरिम सरकार।"



कश्मीर को लेकर सबसे बड़ी गुत्थी यह है कि कश्मीरियों को लगता है, भारत द्वारा दी गई सैन्य मदद तात्कालिक थी, पूर्णकालिक नहीं। साथ ही कश्मीर का भारत में विलय भी अल्पकालिक था और जनमत संग्रह के साथ वह समाप्त हो जाएगा (ग़ौरतलब है कि जूनागढ़ के भारत में विलय का निर्णय जनमत संग्रह से लिया गया था)। दूसरी तरफ़ भारतीयों का विचार था कि कश्मीर का विलय पूर्ण था, शेष पांच सौ से अधिक रियासतों की तरह।

धारा 370 को लेकर भी यही उलझन है। राष्ट्रवादियों को लगता है, वह एक अंतरिम व्यवस्था थी और एक समय के बाद उसे समाप्त हो जाना चाहिए था। वहीं कश्मीरियों को लगता है कि धारा 370 भारतीय संविधान का स्थायी अंग है। देखा तो धारा 370 कश्मीर को भारत से जोड़े हुए है, क्योंकि जब कश्मीरी भारतीय संविधान का हवाला देते हैं, तो वे उसमें अपनी आस्था जता रहे होते हैं। कश्मीर के संदर्भ में श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने "एक विधान, एक निशान, एक प्रधान" का नारा दिया था, जबकि मज़े की बात है कि कश्मीर का जो पृथक संविधान है, उसमें भी कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग ही बताया गया है। घाटी में चुनाव होते हैं और अलगाववादियों की बायकॉट की अपील के बावजूद लोग वोट डालते हैं। यह भी भारतीय विधान के प्रति उनकी सहमति ही है।

उमर अब्दुल्ला जब कहते हैं कि जिस दिन धारा 370 ख़त्म हो जाएगी, उस दिन कश्मीर भी भारत का हिस्सा नहीं रह जाएगा, तो वे तकनीकी रूप से सही कहते हैं। लेकिन उसके बाद कश्मीर का क्या होगा, इसको लेकर वे स्पष्ट नहीं हैं। कश्मीर समस्या अनेक ऐतिहासिक भूलों के साथ ही ऐतिहासिक ग़लतफ़हमियों का भी नतीजा है। डेमोग्राफ़ी के पर्सेप्शंस उसके मूल में हैं। हुक़ूमत को वे किस नज़र से देखते हैं, अफ़स्पा को किस नज़र से देखते हैं। ऐसा क्यों है कि जो हिंदुस्तानी फ़ौज 68 साल पहले उनकी सुरक्षा के लिए वहां गई थी, उसे ही आज वे अपना दुश्मन मानते हैं।

इतिहास एकरैखिकता का भ्रम पैदा करता है, लेकिन एकरैखिक होता नहीं है, वह कई दास्तानों और अफ़सानों का पिटारा होता है। उसमें आम धारणाएं हावी रहती हैं। संवैधानिक रूप से कश्मीर भारत का हिस्सा है और अलगाववादियों के धड़े वहां पृथक से सक्रिय हैं। क्रॉस बॉर्डर मिलिटेंट्स और चरमपंथी उनसे भी अलग हैं। कश्मीर की निर्वाचित सरकारें भारतीय संविधान के प्रति प्रतिबद्ध होती हैं। ऐसे में आज कश्मीर में अमन-चैन क़ायम करने का कोई तरीक़ा अगर हो सकता है तो वह एक सदाशय और संवेदनशील हस्तक्षेप से ही संभव है।

(इस लेख के कुछ तथ्य कश्मीर पर रामचंद्र गुहा, जगमोहन और डेविड देवादास के अध्ययनों पर आधारित हहै।










स्रोत: IBNखबर
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