फिल्म बनाई है नीरज पांडे ने. हमें स्पेशल 26, और अ वेडनसडे जैसी फिल्म देने वाले. लेकिन ये फ़िल्म अलग है. इस फ़िल्म की कहानी लोगों को मालूम थी. नहीं सभी को तो ज़्यादातर लोगों को. यहां उस कैरेक्टर को निभाना था जिसको हर किसी ने देखा है, चाहा है, यहां तक कि पूजा है. लोगों ने उसके पोस्टर अपने कमरे में चिपकाए हुए हैं. और ऐसे में इस महेंदर सिंह धोनी के रोल को निभाना था सुशांत सिंह राजपूत को.
फ़िल्म शुरू होती है और आप नॉसटैल्जिया में डूब जाते हैं. पिछले कई सालों में किसी भी हिंदी फिल्म की शायद ये सबसे धांसू शुरुआत थी. न चाहते हुए भी आप आंखें गीली हुई पाते हैं. इस फ़िल्म के बारे में सबसे बड़ी बात ये थी कि इसकी स्टोरी हर किसी को मालूम थी. हम बस वहां उसे एक बड़े पर्दे पर देखने पहुंचे थे.
ये फ़िल्म ज़्यादातर हिंदी फ़िल्मों में पाई जाने वाली बीमारी से ग्रसित नहीं थी. किसी भी जगह धोनी को सुपरमैन जैसा नहीं दिखाया. उसे वैसा ही एक इंसान दिखाया जैसा कि वो असल में है. एकदम ज़मीनी. गिलास में चाय पीने वाला, खड़गपुर के अपने पुराने साथी से हाथ न मिलाकर उन्हें गले लगाने वाला इन्सान. वो जो रोना आने पर एकांत चाहता है. वो जो टीम में सेलेक्शन न होने पर दुखी नहीं होता बल्कि समोसा और बालूशाही की दावत करवाता है. वो जिसने अपने सर में पत्थर भर रक्खे हैं.
आप कितना भी चाहें, उसने जो सोचा लिया, उससे हिला नहीं सकते. वो जो सरकारी नौकरी को लात मारके क्रिकेट पर फ़ोकस करने अपने घर वापस चला आता है. वो जिसे अपने ऊपर भरोसा था. यहां तक कि फ़िल्म में दिखाई गयी लव स्टोरी भी झेले जाने लायक है. कोई पेड़ के इर्द-गिर्द नाचना नहीं. कोई रेड थीम नहीं. कोई वायलिन का बजना नहीं. फ़िल्म असल में धोनी की इमेज के साथ जस्टिस करती है.
सुशांत सिंह राजपूत. ये फ़िल्म इनके करियर में माइलस्टोन साबित हो सकती है. किसी असल स्पोर्ट्समैन को निभाने के नाम पर अगर अब तक अली के लिए विल स्मिथ का नाम याद आता था तो अब धोनी के लिए सुशांत सिंह राजपूत का नाम याद आएगा. सिर्फ बालों की लंबाई ही नहीं, चलने का तरीका, शॉट के बाद फॉलो थ्रू, ग्लव्स अडजस्ट करने की आदत सब कुछ. कई जगहों पर ऐड शूट के दौरान बहुत हद तक सुशांत बोलते भी एकदम धोनी के अंदाज़ में हैं.
क्रिकेट पसंद करने वालों के लिए एक ट्रीट है. आप चाहेंगे कि फ़िल्म बस चलती जाए. आप कहीं भी रुकना नहीं चाहेंगे. इंटरवल में 10 मिनट का ब्रेक भी बोझिल लगने लगेगा. बल्ले से टकराती गेंदों की आवाज़ गूंजती है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इतनी बड़ी स्क्रीन पर सेकंड भर को ही सही लेकिन जब कभी भी सचिन, सहवाग, द्रविड़ और गांगुली दिखते हैं तो थियेटर में शोर उठता है. मैचों की असल फुटेज का इस्तेमाल किया गया है. और सबसे बड़ी बात – अज़हर, पटियाला हाउस जैसी फ़िल्मों में दिखाए क्रिकेट के खेल से इस फ़िल्म का खेल बहुत अलग है. उन फिल्मों में क्रिकेट असली नहीं लगता है. इसमें एकदम असली. एकदम देसी भी. बिहार और झारखंड के लोग और कुछ हद तक उत्तर प्रदेश के लोग इस क्रिकेट से कनेक्ट भी कर सकेंगे. वहां ऐसा ही क्रिकेट खेला जाता है. एक मैदान में हरी मैट बिछा के नाइट क्रिकेट. जिसमें जिस तरह का भड़क्का होता है, वैसा ही इस फ़िल्म में असल में मौजूद है. इसके साथ ही असली फुटेज में जिस तरह से धोनी के रूप में सुशांत सिंह को घुसाया है, वो आपको हैरान कर देगा. आप बार बार खुद से सवाल करते पाए जायेंगे कि “ये किया कैसे?” फ़िल्म देखने के एक्सपीरियंस को ये और भी बढ़ा देता है. यहां फिर से सुशांत की बड़ाई की जनी चाहिए. साथ ही नीरज पांडे की भी.
फ़िल्म में जुड़ा एक एक ऐक्टर अपनी जगह लिए हुए है. आप सभी को नोटिस करते हैं. सभी मिलकर धोनी को धोनी बनाते हैं. छोटू भइय्या से जुड़ा धोनी का लगाव इस फ़िल्म में बहुत ही प्रेम से दिखाया गया है. अनुपम खेर फिर से एक पिता के रोल में हैं. लेकिन इस बार ये पिता धोनी का पिता है. जो कभी एक पंप ऑपरेटर था और धोनी को पढ़ने की नसीहत देता था. एक लोवर मिडल क्लास बाप को अनुपम खेर ने बहुत अच्छे से दिखाया है. बस कहीं कहीं रांची की बोली की जगह खालिस शहरी बोली आ जाती है. लेकिन चलता है. धोनी की पत्नी साक्षी के रोल में किआरा आडवाणी हैं. उन्हें भी बहुत हद तक असली साक्षी धोनी से मिलाने की कोशिश की गयी है.
फिल्म में दो खास कैरेक्टर हैं. युवराज सिंह और जगमोहन डालमिया. दोनों सच्चाई के इतने नज़दीक हैं कि आप एक सेकंड को असली युवराज और जगमोहन डालमिया को स्क्रीन पर पाते हैं.
फ़िल्म में खराबियां भी हैं. लेकिन वो फ़िल्म बनाने के प्रॉसेस या एग्ज़िक्यूशन में नहीं हैं बल्कि वैचारिक लेवल पर हैं. फ़िल्म को किसी भी तरह की कंट्रोवर्सी से दूर रक्खा गया है. यहां तक कि सचिन और सहवाग के नाम को भी एक जगह म्यूट कर दिया गया है. ऐसा दिखाया गया है कि इतने सालों में धोनी का एक भी क्रिटिक इस धरती पर जन्मा ही नहीं. जिसे देखो, धोनी के गुणगान सा गाता फिर रहा है. इस लिहाज़ से फ़िल्म धोनी के कैरेक्टर को तो खींच लाई मगर सच्ची न बन पाई फ़िल्म में धोनी का गुणगान है. इसके इर्द-गिर्द जितना कुछ किया जा सकता था, किया गया. जहां भी बात क्रिटिसिज्म की आई, फ़िल्म से जुड़े सभी लोगों ने मुंह दूसरी ओर मोड़ किया.
फ़िल्म बस वो पल उठाती है जहां धोनी हमें स्मार्ट, आइडियल और महान लग सकते हैं. साथ ही बड़े ड्रम रोल्स के साथ बढ़ते बैकग्राउंड साउंड से समां बांध दिया जाता है. आप का दिमाग उन जगहों तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता जहां जाने से डायरेक्टर ने खुद को रोक लिया.
खैर, फ़िल्म अच्छी है. एग्ज़िक्यूशन लेवल पर इसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है. बायोपिक के लिहाज़ से ये इंडियन सिनेमा में बनी फिल्मों में बेहतरीन फ़िल्म्स की लिस्ट में आएगी. फ़िल्म देखने जाया जाए. वर्ल्ड कप फाइनल के दौरान वानखेड़े स्टेडियम को दोबारा देखने के लिए. स्क्रीन पर सचिन, सहवाग, द्रविड़ और दादा को वापस देखने के लिए. क्रिकेट से मोहब्बत के लिए. धोनी से इंस्पायर होने के लिए. और सबसे बड़ी बात – दोस्ती के लिए. धोनी जहां भी है, उसके दोस्तों की वजह से है.
फ़िल्म की लंबाई भी एक बुरा पॉइंट है. फिल्म लम्बी है. इतनी कि लगान और जोधा अकबर को टक्कर देने ही वाली थी. फ़िल्म देखने तभी जायें जब ब्लैडर बड़ा और मजबूत हो.
जाइए, देख के आइये. ब्लैडर दुरुस्त रखियेगा.
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