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एक हफ्ते पहले 30 सितंबर को रिलीज हुई सुशांत सिंह राजपूत स्टारर ‘एम.एस.धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ 100 करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई कर चुकी है. इसके अलावा फिल्म के सैटेलाइट राइट्स यानी टीवी प्रसारण अधिकारों और म्यूजिक राइट्स से भी अच्छी आय होनी है. ट्रेड के लोग इसे हिट बता रहे हैं. आलोचकों ने भी इसे मनोरंजक फिल्म बताया है.
एक फिल्म के अच्छा या बुरा बनने में हजारों कारण होते हैं लेकिन हम जानते हैं वो पांच प्रमुख कारण जिन्होंने इस फिल्म को इस मुकाम तक पहुंचाया:

#1. पहली बायोपिक किसी एक्टिव क्रिकेटर की


इसी साल इमरान हाशमी की फिल्म ‘अजहर’ आई थी. ये क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन के जीवन पर बनी थी. फिल्म में कई हेर-फेर थे लेकिन अजहर ने इसे पूरा सपोर्ट किया और प्रमोशन में भी साथ रहे. लेकिन फिल्म फीकी साबित हुई. टोनी डिसूजा के निर्देशन और इमरान हाशमी की एक्टिंग में जरा भी दम नहीं था. उसके बाद ‘एम.एस.धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ का नंबर आता है.
 किसी भारतीय क्रिकेटर पर बनी ये दूसरी बायोपिक है. लेकिन इस लिहाज से पहली है कि धोनी अभी भी क्रिकेट खेल रहे हैं और उनका प्रदर्शन अच्छा है. क्रिकेट के मैदान पर करोड़ों लोग जो उन्हें फॉलो करते हैं, वे फिल्म में भी उन्हें देखने गए. देश में क्रिकेट को फिल्मों जितनी ही लोकप्रियता है. दोनों का कॉकटेल बेजोड़ बन जाता है. इसी का फायदा फिल्म को मिला.

#2. नीरज पांडे


‘अ वेडनसडे’ फिल्म से डायरेक्शन में उन्होंने कदम रखा था. फिल्म बहुत ही कम संसाधनों में बनी लेकिन रोचक स्क्रिप्ट वाली थी. मजबूत स्क्रिप्ट और बहुत अनुशासित निर्देशन के साथ नीरज स्थापित हो गए. उसके बाद ‘स्पेशल 26’ और ‘बेबी’ में भी उन्होंने स्क्रिप्ट और निर्देशन में मजबूती और सादगी बनाए रखी. ये उनकी ताकत है. 
धोनी की कहानी में भी उन्होंने इन दो बातों का सबसे ज्यादा ध्यान रखा. उसके बाद बात उनकी स्टाइल की. वे कमर्शियल सफलता वाले फॉर्मेट पर ही फिल्में बनाते हैं लेकिन अपने पात्रों के कपड़े, घटनाएं, बातें, स्टाइल, माहौल को जितना authentic बना सकते हैं बनाते हैं. इससे देखने वाला कहानी के ड्रामेटिक हिस्सों को भी गंभीरता से लेता है. रियल लोकेशन पर शूटिंग उनकी एक और मजबूती है.
फिल्म का पहला ही टीज़र जब रिलीज किया गया तो उसमें एक भीड़ भरे रेलवे प्लेटफॉर्म पर धोनी के रोल में सुशांत सिंह राजपूत दिखाई देते हैं जिन्होंने टिकट कलेक्टर के कपड़े पहने हुए हैं. अब उस सीन में बाकी लोग एक्टर नहीं थे. ये सीन असली भीड़ में फिल्माया गया. बहुत चतुराई से. ऐसे ही प्रयोगों से नीरज एक निर्देशक के तौर पर सफल हैं. आखिरी बात, वे बहुत अच्छे से जानते हैं कि एक कहानी में दर्शक कहां भावुक होगा और कहां उसके रोंगटे खड़े होंगे. बिना नीरज के ये फिल्म बिलकुल भी ऐसी नहीं हो पाती.


#3. सुशांत सिंह राजपूत


‘किस देश में है मेरा दिल’ और ‘पवित्र रिश्ता’ जैसे टीवी सीरियल्स में मैलोड्रामा करने वाले सुशांत सिंह ने पहली ही फिल्म ‘काई पो छे’ में बहुत गंभीर और सधी हुई एक्टिंग की. इसमें निर्देशक अभिषेक कपूर की ब्रीफिंग अहम थी. पहली फिल्म से सुशांत सीखते चल रहे हैं. ‘शुद्ध देसी रोमांस’ उन्होंने यशराज बैनर के साथ की. गेस्ट रोल वाली ‘पीके’ राजकुमार हीरानी के साथ. और, ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी’ में निर्देशक दिबाकर बैनर्जी का संग मिला. ‘एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ तक सुशांत ये जान चुके थे कि किसी असल आदमी का रोल फिल्म में करने के लिए उन्हें क्या क्या तैयारियां करनी होंगी. 
धोनी जैसे चर्चित क्रिकेटर को फिल्म में कैरी करते हुए वे बिलकुल भी घबराए नहीं दिखते हैं. उन्होंने पहले बाहरी appearance वैसा किया. जैसे, धोनी माफिक लंबे बाल. बिखरे हुए, भूरे से. उन्हीं के जैसे हैलीकॉप्टर शॉट खेलना. उनके शॉट हूबहू धोनी जैसे दिखे. ये शॉट मारने के बाद धोनी का एक पैर हट जाता है, वैसा ही सुशांत ने भी किया. ये सब इमरान हाशमी अपनी फिल्म में नहीं कर पाए.
 सुशांत की कद काठी भी धोनी जैसी है. हेलमेट और इंडियन टीम की जर्सी पहनने के बाद दोनों में ज्यादा अंतर भी नहीं दिखता. एक छोटी जगह से ताल्लुक रखने वाला लड़का माही जो अपने पिता से बहुत लिहाज करता है, वो भी सुशांत ले आते हैं और एक सफल क्रिकेट स्टार बनने के बाद लाइमलाइट में खुद को अंजाम देते हुए भी सुशांत सटीक रहते हैं.


#4. मैदान से बाहर की कहानियां, जैसे साक्षी से लव


दुनिया में जितनी भी सफल स्पोर्ट्स बायोपिक बनी हैं और जिन्हें बार-बार देखा जाता है वे अपने स्पोर्ट्स कंटेंट के कारण नहीं, बल्कि मानवीय कंटेंट के कारण. ‘लगान’ को ले लीजिए, इंडिया में ये सबसे सफल मिसाल है. उसमें क्रिकेट खेलने वाला हिस्सा पूरी तरह तिगुने लगान, गांव वालों की कठिनाइयों, अंग्रेजों की अकड़ वालों भावों पर टिका होता है. ब्रैड पिट की फिल्म ‘मनीबॉल’ भी एक अच्छा उदाहरण है. 
उसमें बेसबॉल के मैचों का कंटेंट न्यूनतम है. बाकी सब – तैयारी, एक टीम मैनेजर के स्ट्रगल, उसके पारिवारिक जीवन, उसके उग्र व्यवहार और radical तौर-तरीकों के बारे में है. और इसी वजह से ‘मनीबॉल’ उन्हें भी जबरदस्त पसंद आती है जिन्होंने कभी बेसबॉल बैट भी हाथ में नहीं लिया है. ‘एम.एस.धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ में भी यही है. 
धोनी का अपने पिता से रिश्ता, दोस्तों से यारी, सरकारी नौकरी, क्रिकेटर बनने का जुनून और साक्षी से प्रेम की लंबी कहानी, ये सब बातें हैं जो इस फिल्म में मजा देती हैं. उन्हें भी जो क्रिकेट के बड़े दीवाने नहीं हैं.

#5. एक अंडरडॉग की कहानी


एक अंडरडॉग की कहानी हर सदी, काल में सफल हुई है और होती रहेगी. क्लासिक्स इसके गवाह हैं. शाहरुख खान, धोनी, कपिल देव किसी को भी ले लीजिए. ये सब पात्र छोटी जगहों से निकले. एक-एक करके पड़ाव पार किए. अपने सपने थे, उन्हें पूरा करने के लिए डटे रहे. अगर आपकी कहानी में आप अंडरडॉग नहीं रहे हैं तो आपको किसी लैजेंड का रुतबा नहीं मिलेगा. इस बात को हर सफल आदमी समझता है, इसीलिए अपने सफलता वाले इंटरव्यूज़ में कहता है कि “मैं एक्टर के तौर पर स्ट्रगल कर रहा था तो रेलवे स्टेशन पर सोया या मुंबई के फुटपाथ पर रात गुजारी”. या कोई राजनेता कहेगा कि “मैं जेब में 100 रुपये लेकर इस शहर में आया था और आज अरबपति हूं”. 
धोनी की कहानी में अगर ये एक पहलू नहीं होता तो ये एक फ्लॉप फिल्म साबित होती. हम फिल्में देखते ही इसलिए हैं कि किसी कमजोर को ताकतवर बनते हुए, जिंदगी में कुछ हासिल करते हुए देख पाएं. अगर ये प्लॉट न होता तो फिल्म माध्यम और कहानी का माध्यम विकसित ही न होता. फिल्म बनाने वालों ने धोनी की कहानी में इसे ख़ूब भुनाया है और इसका नतीजा दिख रहा है.







सोर्स:लल्लनटॉप 
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