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यूपी में चुनाव हो रहा है. रोज जाति समीकरण गिने जा रहे हैं. हर पार्टी शोषित दलित समाज का प्रतिनिधि बनने का दावा कर रही है. पर इसी यूपी के गांव रुदायन में दलित समाज 27 साल बाद होली खेलेगा. 


किसी के लिए ये कोई खबर नहीं सकती है. लोग कहेंगे कि ये कौन सी बड़ी बात है. पर एक समाज के लिए ये बहुत बड़ी बात है.



11 मार्च 1990 को हाथरस के रुदायन गांव में दलित समुदाय के दाता राम को जिंदा जला दिया गया था. हुआ ये था कि कुछ दिन पहले होली के दौरान दाता राम ने कथित ऊंची जाति के आदमी कुंवर पाल पर रंग डाल दिया था.



 इससे कथित ऊंची जाति के लोग नाराज हो गए. दाता राम की इस गुस्ताखी की सजा सिर्फ उसे ही नहीं मिली बल्कि दाता राम के अगल-बगल के 42 दलित परिवारों के घर भी जला दिये गये थे. फिर उनकी हिम्मत नहीं हुई दोबारा होली खेलने की.



उस वक्त बीएसपी सुप्रीमो मायावती अपने लश्कर के साथ गांव पहुंच गई थीं और धरने पर बैठ गई थीं. मायावती की इनवॉल्वमेंट से इस केस की तरफ सबका ध्यान ज्यादा चला गया था. मामला मीडिया में खूब उछला था. मायावती को भी अपनी दलित-राजनीति में खूब उछाल मिला. लेकिन केस कुछ आगे नहीं बढ़ा. 1995 में जब मायावती सीएम बनीं तो भी इस मामले पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. पीड़ितों की पैसों से भी कोई मदद नहीं हुई.



पर इस साल रुदायन गांव के दलित होली खेलेंगे. क्योंकि 15 फरवरी 2017 को निचली अदालत ने कुंवर पाल को सजा-ए-मौत और बाकी के 13 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. दलित समाज ने सरकार से अपने होली के उत्सव के लिए प्रोटेक्शन की मांग की है. ताकि इस बार की होली में कोई खलल न पड़े.



दाता राम के भाई हरिशंकर ने कहा कि
’27 साल तक हमने होली या दीपावली नहीं मनाई लेकिन अदालत के फैसले से हमें कॉन्फिडेंस मिला है.’


रुदायन गांव में 5000 लोग रहते हैं. गांव में 3 सरकारी स्कूल हैं. बिजली, अच्छी सड़कें, अस्पताल सब हैं. लेकिन जाति को लेकर इस इलाके में आज भी तनाव देखा जा सकता है. 


वहीं कुंवर पाल की बीवी सरोज देवी ने पति को मिली मौत की सजा को मानने से इंकार कर दिया है. उनका मानना है कि उनका पति निर्दोष है. सरोज का कहना है कि

‘जिन्होंने दाता राम का खून किया था, वो खुले घूम रहे हैं. मेरे पति को फंसाया गया है.’


अगर वाकई में ऐसा है तो और दुखद है. पर कोर्ट का फैसला तो आ गया है.


वैसे होली को बैर मिटाने वाला त्यौहार माना जाता है. बहुत घिस चुकी बात ‘बुरा न मानो होली है’ ही इस त्यौहार की आत्मा है. होली के दिन हर कोई खुद को भुलाकर बस अबीर- गुलाल में डूब जाना चाहता है. लेकिन हमारे समाज ने ऊंची जाति, नीची जाति के नाम से इतनी बड़ी खाई खड़ी कर दी है कि होली में रंग लगा देना, किसी की मौत की वजह बन गया.



 ऐसा भी क्या बड़े कुल का अहंकार, जो अपनी ही तरह दूसरे इंसान को जिंदा जला डालता है. इस लंबी खाई ने ऐसा खौफ बना दिया कि एक गांव के सारे दलित होली नहीं मनाने की हिम्मत न कर सके. ये एक समाज के तौर पर हमारी फेल्योर है.



सोर्स:लल्लनटॉप 
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