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सितंबर 1977, दिल्ली का कॉन्स्टीट्यूशन क्लब. जनता पार्टी ने एक तीन दिन की कॉन्फ्रेंस बुलाई. मुद्दा एक. जाति का दंश कैसे खत्म किया जाए समाज से. कॉन्फ्रेंस में बोलने आए प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई की कैबिनेट के एक मंत्री राज नारायण. राज नारायण उन दिनों के सबसे बड़े हीरो थे. समाजवादी नेता. जिसने इंदिरा गांधी को हराया. 


1971 में राज नारायण राय बरेली से चुनाव लड़े. जब डब्बा खुला और वोट गिने गए, तो इंदिरा के हिस्से आए 1 लाख 83 हजार. और राज नारायण रह गए 71 हजार पर. मगर इस बनारसी ने लड़ाई खत्म नहीं मान ली. पहुंच गए कोर्ट. बोले, प्रधानमंत्री ने सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग किया है. 1975 में जस्टिस सिन्हा ने सुनाया फैसला. 


इंदिरा गांधी का चुनाव इनवैलिड हो गया. कुछ ही दिनों में इमरजेंसी लग गई. जब हटी तो फिर चुनाव हुए. साल था 1977. फिर रायबरेली की सीट पर दोनों ताल ठोंक रहे थे. इस बार जनता ने नया फैसला सुनाया. डब्बे खुले. इंदिरा गांधी को मिले 1 लाख 22 हजार. और राज नारायण को 1 लाख 77 हजार.





तो अपने कभी बेबाक तो कभी बेतुके बयानों के लिए मशहूर राज नरायण का उन दिनों चरचराटा था. वह कॉन्फ्रेंस के मंच पर दलित हितों की तमाम बातें करते रहे. मगर एक गलती कर गए. 


कांग्रेसियों की तरह वह भी दलितों के लिए गांधी का दिया शब्द हरिजन इस्तेमाल करते रहे अपने भाषण के दौरान. सामने एक लड़की बैठी थी. 21 साल की. डीयू से लॉ कर रही थी. पहला साल था. उसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ. उसकी बारी आई बोलने की. उसने राज नारायण, जनता पार्टी और कांग्रेस, सबको कोसा. 


बोली, ‘गांधी ने हमारी बेइज्जती करने के लिए ये शब्द बनाया. हरिजन. ईश्वर का बच्चा. अगर हम हरिजन हैं तो देवदासियों के बच्चों का क्या. जो ईश्वर की गुलाम मानी जाती हैं. और फिर पंडों के नाजायज बच्चे जनती हैं. वे भी तो हरिजन हुए न. शब्दों के हिसाब से.’


मायावती यहीं नहीं रुकीं. बोलीं, हमारे भगवान बाबा साहेब अंबेडकर हैं. उन्होंने कभी हरिजन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया. संविधान बनाया तो लिखा, अनुसूचित जाति. तो फिर गांधी के चमचे. सब सवर्ण हमें बार बार हरिजन क्यों बोलते हैं.


मायावती के इस तेजाबी भाषण के बाद वहां मौजूद दलित समाज उत्तेजित हो गया. राज नारायण मुर्दाबाद और जनता पार्टी मुर्दाबाद के नारे लगने लगे. 


समाज के वहां मौजूद तमाम प्रतिनिधि इस लड़की को बधाई देने पहुंचे. उनमें एक नए बने संगठन के लोग भी थे. इसका नाम था बामसेफ. यानी बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज इंप्लाईज फेडरेशन. इसे एक साल पहले एक पंजाबी दलित ने शुरू किया था. उनका नाम था कांशीराम.



भीम राव अंबेडकर समाजिक परिवर्तन स्थल, लखनऊ. फोटो क्रे़डिट: Reuters




कांशीराम पूरे देश में घूम घूमकर दलित समाज के सरकारी कर्मचारियों को संगठित कर रहे थे. ऐसे ही एक दौरे के बाद वह दिल्ली लौटे तो उन्हें बामसेफ के लोगों ने मायावती के बारे में बताया. 


और तब कांशीराम सर्दियों की एक शाम इंदर पुरी के उस घर में पहुंच गए, जहां प्रभु दास की बेटी मायावती अपने परिवार के साथ रहती थी. मायावती पढ़ाई कर रही थीं. आईएएस के एग्जाम के लिए.




कांशीराम ने कहा, क्यों बनना चाहती हो आईएएस? मायावती बोलीं, दलित समाज की सेवा के लिए. कांशीराम ने समझाया, ‘अधिकारी तो बहुत बन गए. कितना बदले हालत. नेता बनो. सत्ता में आओ. अधिकारियों को भी सत्ताधारी नेताओं की ही सुननी होती है.’ और उसके बाद जो हुआ वो इतिहास है.


राष्ट्रीय दलित प्रेरण स्थल, नोएडा में मायावती. साल 2011. क्रेडिट: Reuters




मायावती कांशीराम के साथ जुड़ीं. 1984 में बीएसपी बनी. वह चुनाव लड़ीं. यूपी के कैराना से. पहले ही चुनाव में बिना संसाधनों वाली बीएसपी को कैराना में 44 हजार वोट मिले. 



फिर 1985 में कांशीराम ने मायावती को बिजनौर लोकसभा उपचुनाव में लड़वाया. वह फिर हारीं. 1987 में हरिद्वार से बाई इलेक्शन लड़वाया. वह हारीं, मगर 1 लाख से भी ज्यादा वोट पाए. 



और 1989 में मायावती ने अपने सपने को हकीकत में बदलने वाला पहली सीढ़ी चढ़ने में कामयाबी पा ली. उन्होंने लोकसभा चुनावों में बिजनौर सीट जीत ली. 9 हजार वोटों से. जबकि पूरे प्रदेश में जनता दल की लहर थी.


फिर मायावती, कांशीराम और बीएसपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.


पर इतिहास लिखने वाले जब भी मुड़कर देखेंगे, उस शाम को जरूर देखेंगे. जब एक लड़की ने एक भाषण दिया. और फिर उसकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई.


2011 में चुनाव प्रचार के दौरान लखनऊ का माहौल, क्रेडिट: reuters




सोर्स:लल्लनटॉप 

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