loading...


there was a difference in opinion between ambedkar and mahatma gandhi on the caste system and observation


 DR Br Ambedkar- Mahatma Gandhi


भारत की आज़ादी की लड़ाई में गांधी के प्रवेश ने इसके पूरे स्वरूप को ही बदल कर रख दिया था. इसकी वजह थी कि गांधी ने कुछ ऐसे अहिंसक तरीके ढूंढ़ निकाले थे, जो एक साथ राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक सबकुछ होते थे. 


असहयोग, सविनय-अवज्ञा और सत्याग्रह जैसे उनके तरीकों के सामने हथियारबंद दस्ते भी मजबूर हो जाते थे. गांधी की सबसे बड़ी खोज यह थी कि सत्याग्रह के इस तरीके का इस्तेमाल न केवल विदेशी शासन के खिलाफ किया जा सकता था, बल्कि इसका इस्तेमाल सामाजिक-आर्थिक सुधार के लिए जमींदारों और पुरोहितवादियों के खिलाफ भी उतनी ही सफलता से किया जा सकता था. 


1917 में चंपारण में उन्होंने जमींदारों के खिलाफ इसका सफल प्रयोग कर दिखाया था. और इसके बाद 1924-25 में केरल में वाइकोम मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के लिए भी इसका सफल प्रयोग किया गया.



गांधी के इस तरीके की सफलता से अंबेडकर भी खासे प्रभावित जान पड़ते थे. वहीं 25 मई, 1921 को ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने दलितों के समर्थन में दो-टूक शब्दों में लिखा था - ‘यदि हम भारत की आबादी के पांचवें हिस्से (यानी दलितों) को स्थायी गुलामी की हालत में रखना चाहते हैं और उन्हें जान-बूझकर राष्ट्रीय संस्कृति के फलों से वंचित रखना चाहते हैं, तो ‘स्वराज’ एक अर्थहीन शब्द मात्र होगा.’ एक कठोर सनातनी समाज में गांधी की इस निर्भीक टिप्पणी ने अंबेडकर के हृदय को भी अवश्य ही छुआ होगा.



अंबेडकर के राजनीतिक जीवन को सबसे निर्णायक मोड़ देनेवाली यदि कोई घटना थी, तो वह निस्संदेह महाड़ के चवदार तलै (यानी मीठे पानी का तालाब) वाली घटना थी. इसके बारे में अंबेडकर ने खुद भी कभी नहीं सोचा था. वे तो केवल महाड़ परिषद् के अध्यक्ष की हैसियत से अस्पृश्यों में जागृति फैलाने के उद्देश्य से इस कार्यक्रम में आए थे. 



 

इस कार्यक्रम में जाति से कायस्थ विनायक चित्रे नाम के सज्जन को धन्यवाद ज्ञापन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. उन्होंने अपने भाषण में यह सुझाव दिया कि बंबई विधान परिषद् के कानून के मुताबिक महाड़ की नगरपालिका ने यहां की चवदार तालाब को सभी जातियों के लिए खोल तो दिया है, लेकिन अभी भी किसी अस्पृश्य की यह हिम्मत नहीं हुई है कि वह तालाब से पानी भर लाएं. इसलिए यदि हम अध्यक्ष (अंबेडकर) के साथ तालाब पर चलें और इस रूढ़ि को तोड़ें ताकि इस कानून की असल परीक्षा भी हो जाए.



फिर क्या था, इस सभा में दूर-दूर से भाग लेने आए अछूत अपनी प्यास बुझाने के लिए तालाब की ओर चल पड़े. स्वयं पुलिस इंस्टपेक्टर भी स्थिति की गंभीरता की कल्पना नहीं कर पाया, वह भी उनके साथ-साथ ही चल रहा था. यह तालाब ब्राह्मणों के मोहल्ले के ठीक बीच में था. 



चूंकि किसी को पता नहीं था कि अस्पृश्यों की यह भीड़ तालाब पर पानी पीने जा रही है, इसलिए कोई गड़बड़ नहीं हुई. सैकड़ो अस्पृश्य तालाब में घुस गए और हर-हर महादेव का घोष करते हुए अपनी प्यास बुझाने लगे. सैकड़ों वर्षों से चली आ रही एक घोर भेदभावपूर्ण रूढ़ि टूट चुकी थी.



यह दृश्य जब सवर्णों ने देखा, तो वे भीतर-ही-भीतर क्रोध से तिलमिला उठे. बदला लेने के लिए उन्होंने झूठी अफवाह फैलाई कि अब ये अछूत वहां के वीरेश्वर मंदिर में घुसने वाले हैं. 



देखते ही देखते चार-पांच सौ लोग लाठी-डंडा इत्यादि लेकर निकल पड़े और रास्ते में जो भी दलित उन्हें दिखा, उसे अमानवीयता से बेतहाशा पीटने लगे. उन्होंने वहां के निरीह दलित समुदायों पर भयानक हमला बोल दिया. उन्हें उनकी झोपड़ियों से निकाल-निकाल कर बेदम होने तक पीटा. पूरे दिन एकतरफा गुंडागर्दी और हिंसा का प्रचंड दौर चला.



महाड़ सत्याग्रह की घटना ने अंबेडकर के अंतरतल को हिलाकर रख दिया. कल तक उनका भरोसा हिन्दू समाज में बचा हुआ था. लेकिन इस घटना के बाद यह सब स्वाहा हो गया 




अंबेडकर की सभा में 1500 के आस-पास दलित थे, लेकिन एक धैर्यवान सत्याग्रही की भांति किसी ने भी इस मार-पीट का प्रतिकार नहीं किया. हालांकि कथित अस्पृश्यों से सहानुभूति रखने वाले कुछ सवर्णों ने उन दलितों को बचाने की कोशिश अवश्य की.



 खुद डॉ अंबेडकर को सुरक्षा के लिए पुलिस थाने में रात गुजारनी पड़ी. अगले दिन महाड़ के सनातनियों ने तालाब के पानी में वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पंचगव्य मिलाकर उसे शुद्ध किया.



इस घटना ने अंबेडकर के अंतरतल को हिलाकर रख दिया. कल तक उनका भरोसा हिन्दू समाज में बचा हुआ था. गांधी और कांग्रेस के प्रयासों में भी उनकी आस्था बची हुई थी. लेकिन इस घटना के बाद यह सब स्वाहा हो गया. वे भीतर से कराह उठे और उनका आक्रोश फूट पड़ा. 



अपने पाक्षिक पत्र ‘बहिष्कृत भारत’ में उन्होंने लिखा- ‘हमें सिर्फ इतना ही कहना है कि आज तक हम महात्मा गांधी के कहे अनुसार यह मानते थे अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का कलंक है. लेकिन अब हमारी दृष्टि बदल गई है. अब हम समझ गए हैं कि यह हमारी नर देह पर कलंक है. ...अब तक हमने इसे नष्ट करने का काम आप लोगों को सौंप रखा था, लेकिन अब यह जान चुकने के बाद इसे धोकर मिटा देने का पवित्र कार्य हमारा है.’



महाड़ से किसी ने गांधी को पत्र लिखकर इस भयानक घटना का जो मार्मिक चित्रण किया था, उसे महात्मा गांधी ने 28 अप्रैल, 1927 को यंग इंडिया में प्रकाशित किया. 



सारा दोष सवर्णों को देते हुए उन्होंने लिखा, ‘डॉ अंबेडकर ने जो अस्पृश्यों को तालाब पर पानी पीने की सलाह देकर बंबई विधान परिषद और महाड़ नगरपालिका के प्रस्तावों को कसौटी पर कसा, उनका यह काम मैं समझता हूं कि बिल्कुल उचित ही था.’



अंबेडकर ने महाड़ तालाब पर दूसरी बार भी सत्याग्रह की योजना बनाई थी, लेकिन इसे बाद में किन्हीं कारणवश स्थगित कर दिया गया. क्षणिक आक्रोश के बावजूद इस घटना के बाद भी अंबेडकर का भरोसा गांधी में कायम रहा. उन्हें बस एक शिकायत रहती थी कि गांधी ने अस्पृश्यता-निवारण की तुलना में हिन्दू-मुस्लिम एकता को अधिक महत्व दे रखा था. 



अंबेडकर की गांधी के प्रति सहृदयता और सम्मान का पता हमें दिसंबर 1927 में महाड़ में ही आयोजित सत्याग्रह परिषद् के आयोजन से चलता है. अंबेडकर की प्रेरणा से आयोजित इस परिषद् के शामियाने में महात्मा गांधी का भी चित्र लगाया गया था. 


दो वर्ष पहले 1925 में बेलगांव में आयोजित बहिष्कृत परिषद में अंबेडकर ने कहा था, ‘जब कोई भी तुम्हारे निकट नहीं आ रहा है, तब महात्मा गांधी की सहानुभूति कोई छोटी बात नहीं है.’



दो अप्रैल 1930 को अंबेडकर ने कहा था, ‘मैं भगवद्गीता के अलावा किसी भी पुस्तक को आदरणीय या प्रमाण नहीं मानता. हालांकि मैं वेदों को प्रमाण नहीं मानता, लेकिन मैं अपने को सनातनी हिन्दू मानता हूं’ 



ध्यान रहे कि इसी बीच अंबेडकर द्वारा मनुस्मृति को जलाने की घटना के बावजूद हिंदू धर्म में उनका विश्वास फिर भी कायम रहा था. अपने महाड़ परिषदों में उन्होंने ‘हिन्दू मात्र के जन्मसिद्ध अधिकारों का घोषणापत्र’ के नाम से एक प्रस्ताव भी स्वीकार किया था. 



डॉ अंबेडकर में कई बार गांधी की तरह की ही उदारतापूर्ण दूरदर्शिता दिखाई देती थी. अब देखिए न कि उन्होंने मनुस्मृति को जलाने का काम भी काफी सोच-समझकर एक चितपावन ब्राह्मण को सौंपा था जिनका नाम था- गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे. 



अंबेडकर जानते थे कि उन परिस्थितियों में यदि यह कार्य किसी अस्पृश्य के हाथों होता, तो सवर्णों में इसकी तीखी और हिंसक प्रतिक्रिया हो सकती थी.
 

इसके बाद भी अंबेडकर स्वयं को अपनी तरह का सनातनी हिन्दू ही मानते थे. दो अप्रैल, 1930 को उन्होंने कहा था, ‘यह कहा जाता है कि वर्ण-व्यवस्था हिन्दू धर्म का आधार है, लेकिन मैं यह नहीं मानता. मैं यह भी नहीं मानता हूं कि चातुर्वण्य व्यवस्था के बाहर के हिन्दू अस्पृश्य हैं. ऐसे भी हिन्दू हैं जो वेदों को नहीं मानते. मैं भगवद्गीता के अलावा किसी भी पुस्तक को आदरणीय या प्रमाण नहीं मानता. हालांकि मैं वेदों को प्रमाण नहीं मानता, लेकिन मैं अपने को सनातनी हिन्दू मानता हूं.’



महाड़ के बाद सत्याग्रह के इस अचूक अस्त्र की ताकत का अंदाजा अंबेडकर को अच्छी तरह हो चला था. अब वे इसे और भी तीव्रता से अपनाना चाहते थे.


 गांधीजी द्वारा प्रेरित वाइकोम मंदिर सत्याग्रह के सात वर्ष बाद 1930 में जब अंबेडकर ने उसी तर्ज पर नाशिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश का आंदोलन शुरू किया, तो इसे भी उन्होंने कालाराम मंदिर सत्याग्रह का ही नाम दिया. सत्याग्रह एक ऐसा शब्द और विचार था जिसे गांधी ने ही गढ़ा था. हालांकि अपने स्वभाव के अनुरूप अंबेडकर ने इस सत्याग्रह के तौर-तरीकों में थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया था.



अंबेडकर द्वारा किया गया यह सत्याग्रह भी कई मायनों में दिलचस्प था. जैसे इस सत्याग्रह से एक बात निकलकर आई थी कि कथित सवर्णों और ब्राह्मणों के बीच भी ऐसे उदारवादी भरे पड़े थे, जो दलितों के मंदिर प्रवेश के समर्थक थे और अंबेडकर के प्रशंसक भी.



 नाशिक के कांग्रेस कार्यकर्ता और पत्रकार बालकृष्ण जनार्दन मराठे भी बाबासाहेब का समर्थन कर रहे थे. सत्याग्रह तीन मार्च को सुबह ही शुरू हो गया. बड़ी संख्या में दलित सत्याग्रही मंदिर के चारों प्रवेश द्वारों को घेरकर बैठ गए और भजन गाने लगे.



कट्टर सनातनियों की उग्र प्रतिक्रिया को देखकर तब के शंकाराचार्य ने कहा था, ‘यदि प्रत्यक्ष भगवान रामचंद्र भी कहें कि अस्पृश्यों को मंदिर में आने दो, तो भी कट्टर सनातनी उनको मंदिर में नहीं आने देंगे’ 



इधर सवर्णों में खलबली मच गई. उसी रात नाशिक में शंकराचार्य डॉ कुर्तकोटी की अध्यक्षता में सवर्णों की एक सभा हुई, जिसमें किसी ने सुझाव दिया कि कथित ‘अछूतों’ से समझौता कर लिया जाए. लेकिन कट्टर सनातनी यह सुनते ही बौखला गए और सुधार के समर्थक ब्राह्मणों पर पथराव शुरू कर दिया. 



कट्टर सनातनियों की इस उग्र प्रतिक्रिया को देखकर शंकाराचार्य ने कहा था, ‘यदि प्रत्यक्ष भगवान रामचंद्र भी कहें कि अस्पृश्यों को मंदिर में आने दो, तो भी कट्टर सनातनी उनको मंदिर में नहीं आने देंगे.’



इधर अंबेडकर के सत्याग्रही मंदिर के दरवाजे के सामने पहले ही लंबी कतार लगाकर खड़े हो गए थे. डॉ अंबेडकर ने जिला प्रशासन को बता दिया था कि यदि कोई दर्शनार्थी (सवर्ण) कतार तोड़कर मंदिर में घुसने की कोशिश करेंगे, तो वे उसे रोकेंगे. 


इसपर वहां के कलेक्टर गोर्डन और अंबेडकर के बीच हुई बातचीत इस तरह हुई बताई जाती है. इस बातचीत को सुनकर आपको 13 साल पहले चंपारण में गांधी और वहां के मजिस्ट्रेट हेकॉक के बीच हुई बातचीत की याद आ जाएगी.



कलेक्टर गोर्डन— किसी दर्शनार्थी के मंदिर में जाने से रोकने से क्या फौजदारी अपराध का मामला नहीं बन जाएगा?


अंबेडकर— हां, यह फौजदारी अपराध तो है ही.


गोर्डन— अगर मैं भारतीय दंड संहिता की धारा 144 के तहत आदेश दूं और महारों को वहां बैठने से मना कर दूं, तो आप क्या करेंगे?


अंबेडकर— उस हालत में हम और हमारे सहयोगी आपका आदेश नहीं मानेंगे.


ऐसा लग रहा था मानो अंबेडकर के भीतर से गांधी की निर्भीक सत्याग्रही आत्मा बोल रही हो. हालांकि यह आंदोलन गांधीजी के दांडी मार्च के शोर में दब गया और अंग्रेज गृहमंत्री हॉटसन ने अंबेडकर को इसे स्थगित करने के लिए मना लिया. लेकिन यह आंदोलन आगामी छह साल तक वापस नहीं लिया गया.


अब इस आलेख के अंत में हम गांधी और अंबेडकर के बीच हुए उस ‘पूना पैक्ट’ का जिक्र करेंगे, जिसके संदर्भ में गांधी और अंबेडकर के बीच की कटुता को हमेशा बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है.


 दरअसल यह परिस्थिति तब पैदा हुई थी जब विधान सभाओं में दलितों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए अंग्रेज सरकार ने दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की व्यवस्था का प्रस्ताव कर दिया था. यानी यदि यह लागू हो जाता तो संभवतः दलितों को हमेशा के लिए औपचारिक तौर पर हिन्दुओं से अलग पहचान मिल जाती.



राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग दी फाउंडिंग फादर्स’ में लिखते हैं कि अंबेडकर ने अपनी आशंकाओं के उलट यह पाया था कि गांधी के विचार खुद उनसे बहुत मेल खाते थे


दूसरा गोलमेज सम्मेलन विफल हो चुका था और भारत वापस आते ही गांधी को गिरफ्तार कर यर्वदा जेल में कैद कर दिया गया था. ऐसे में गांधी के पास उपवासरूपी सत्याग्रह के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था. 


हालांकि स्वयं डॉक्टर अंबेडकर भी रैम्जे मैक्डोनल्ड की इस व्यवस्था से पूरी तरह खुश नहीं थे, लेकिन फिर भी गांधीजी के आमरण उपवास को उन्होंने एक अनैतिक धमकी के रूप में देखा.


 दोनों के बीच संदेशों का आदान-प्रदान और मुलाकात तक हुई, लेकिन बात बन नहीं पा रही थी. अन्य दलित नेता जैसे डिप्रेस्ड क्लासेज एसोसिएशन के एमसी राजा और मद्रास के मुस्लिम नेता याकूब हुसैन भी गांधी के पक्ष में थे.



जब आखिरकार गांधीजी ने आमरण उपवास शुरू ही कर दिया, तो अंबेडकर इसे उनका राजनीतिक कदम मानकर बहुत ही सशंकित थे. जबकि गांधी राजसत्ता के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के जबरिया प्रयासों को ही आशंका की दृष्टि से देखते थे.



 वे मानते थे कि व्यक्ति की अंतरात्मा को जगाकर ही दूरगामी सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है. अंबेडकर को इसके प्रमाण भी मिलने शुरू हो गए जब उन्होंने देखा कि गांधी के उपवास का असर कट्टर सनातनियों तक पर होना शुरू हो गया था. गांधी ने इन परिस्थितियों के लिए बार-बार सवर्णों को ही जिम्मेदार ठहराया था और उन्हें आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरित किया था. इसका असर भी दिखना शुरू हुआ. 



जगह-जगह मंदिरों, तालाबों और कुओं को अपने आप ही दलितों के लिए खोला जाने लगा. कई स्थानों पर सहभोजों का आयोजन तक होना शुरू हो गया. हालांकि अंबेडकर अब मात्र इन सबसे ही संतुष्ट होनेवाले नहीं थे. वे स्पष्ट रूप से राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी चाहते थे. फिर भी गांधी की सच्चाई, निर्भीकता और दृढ़ता से वह बहुत प्रभावित हुए थे.



यर्वदा जेल में ही जब पूना समझौते पर अंबेडकर और गांधीजी ने हस्ताक्षर किए. तो इसके बाद गांधी और अबंडेकर के बीच अनौपचारिक बातचीत भी होती रही.



 राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग दी फाउंडिंग फादर्स’ में लिखते हैं कि अंबेडकर ने अपनी आशंकाओं के उलट यह पाया था कि गांधी के विचार खुद उनसे बहुत मेल खाते थे. इससे अंबेडकर को बड़ा आश्चर्य हुआ था. उन्होंने तत्काल ही गांधी से कहा था, ‘यदि आप अपने आप को केवल दलितों के कल्याण के लिए समर्पित कर दें, तो आप हमारे हीरो बन जाएंगे.’



अंबेडकर और गांधी के बीच सत्याग्रह और दलितोद्धार के धरातल पर इतनी सहमतियों और वैचारिक समानताओं की ओर हमारा ध्यान प्रायः जाता ही नहीं हैं.


 एक लंबे दौर में इनके लड़ाकू अनुयायियों ने इन दोनों महान शख्सियतों के बीच इतनी दूरियां पैदा कर दी हैं, इतनी दीवारें खड़ी कर दी हैं कि हमें इन सहज और मानवीय तथ्यों को जानकर भी आश्चर्य होता है.



 क्या हम इन दोनों महापुरुषों के बहुधा आत्मीय संबंधों को अब भी स्वीकारने के लिए आसानी से तैयार हो पाएंगे? अंतर्मन में पड़ी गांठें क्या इतनी आसानी से खुल पाती हैं भला! लेकिन चंपारण सत्याग्रह के सौंवे साल में बाबासाहेब की जयंती इसका एक उपयुक्त अवसर तो हो ही सकता है.



सोर्स:फर्स्ट पोस्ट
loading...

एक टिप्पणी भेजें

योगदान देने वाला व्यक्ति

Blogger द्वारा संचालित.