एक इंसान जो भारत की आज़ादी के लिए लड़ा. फिर मुसलमानों के हक़ की
बात करने लगा. फिर पाकिस्तान बनाने के लिए हजारों बंगालियों को क़त्ल होते
हुए देखता रहा. इसका इनाम भी मिला. पाक का प्रधानमंत्री भी बना. पर बाद में
उसे अपने ही देश में जलील कर दिया गया. अकेला हो गया था पर तानाशाह अयूब
खान इससे डरते थे. इतना कि इसे मार नहीं सकते थे. पूरी ताकत लगा दी इसके
प्रभाव को रोकने के लिए. इसे देश छोड़कर लेबनान जाना पड़ा. हुसैन सुहरावर्दी
जिसने अपनी जिंदगी में हीरो से विलेन तक का सफ़र कई बार तय किया.
एक जटिल इंसान: ऑक्सफ़ोर्ड से यूनाइटेड मुस्लिम पार्टी तक
बंगाल के मिदनापुर में 8 सितम्बर 1892 को धनी सुहरावर्दी परिवार में
जन्म हुआ था हुसैन सुहरावर्दी का. पूरा परिवार सेंट जेवियर्स से लेकर
ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ा था. हुसैन सुहरावर्दी ने भी साइंस पढ़ा, फिर लॉ किया और
कलकत्ता में प्रैक्टिस करने लगे. कलकत्ता हाई कोर्ट के एक जज की बेटी
फातिमा से शादी भी हो गई. पर फातिमा की दो साल के अन्दर मौत हो गई. बेटा
शहाब सुहरावर्दी भी 20 का होते-होते मर गया था. हुसैन अपनी जिंदगी में
अकेले हो गए थे.
पर हिंदुस्तान का वो वक़्त किसी को अकेला नहीं छोड़ता था. वो भी बंगाल
में. 1923 में हुसैन सुहरावर्दी ने सी आर दास की स्वराज पार्टी ज्वाइन कर
ली. ये पार्टी कांग्रेस के उलट अंग्रेजों के साथ कन्धा मिलकर संसद में
बैठती थी और हर बिल पर धुआंधार बहस करती थी. पर दास के मरने के बाद पार्टी
की धार ख़त्म हो गई. और हुसैन सुहरावर्दी ने 1926 में इंडिपेंडेंट मुस्लिम
पार्टी बना ली. कांग्रेस नहीं ज्वाइन किया.
इसके साथ ही हुसैन सुहरावर्दी मजदूरों के लिए भी लड़ने लगे. लगभग 36
ट्रेड यूनियन बनाने में हुसैन का हाथ रहा. इसमें मछुआरे, रिक्शावाले,
ठेलेवाले सबकी यूनियन थी. 1929 के काउंसिल इलेक्शन में बंगाल मुस्लिम
इलेक्शन बोर्ड नाम से अलग संस्था बना दी. 1937 चुनाव में यूनाइटेड मुस्लिम
पार्टी भी बना ली. चुनाव लड़ने के लिए.
लड़ के लेंगे पाकिस्तान
उसी वक़्त मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का आइडिया सबके दिमाग में डाल
दिया था. राजनीतिक हालात ऐसे बन गए थे कि बहुत लोगों को हिन्दू-मुस्लिम
अलग-अलग लगने लगे. हुसैन सुहरावर्दी ने राउंड टेबल कांफ्रेंस में ‘मुस्लिम
नेता’ के तौर पर भाग लिया. उनके लिए अलग चुनाव की बात भी करते थे.
मुहम्मद अली जिन्ना
1937 में चुनाव हुए. 11 ब्रिटिश इंडियन प्रोविंसेज में सिर्फ बंगाल में
मुस्लिम लीग फजलुल हक़ की कृषक प्रजा पार्टी के साथ मिलकर सरकार बना पाई.
इसका क्रेडिट हुसैन सुहरावर्दी की काबिलियत को जाता है. बंगाल में उनका
बहुत रौला था. 1937-43 तक वो पार्टी के सेक्रेटरी थे. इस दौरान लीग की ताकत
बहुत बढ़ गई.
1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद पाकिस्तान की मांग बहुत ज्यादा बढ़ गई.
मुस्लिम लीग ने इस आन्दोलन में भाग भी नहीं लिया था. इसके बाद क्रिप्स
मिशन से लेकर कैबिनेट मिशन तक किसी में कांग्रेस और लीग की नहीं बनी.
धीरे-धीरे तय होने लगा कि अब दो देश बनने निश्चित हैं. पर ये राजनीति में
ही था. सिर्फ नेताओं के दिमाग में. जनता में इस विचार का बहुत प्रभाव नहीं
था. उस वक़्त ना सोशल मीडिया था, ना ही टीवी.
सुहरावर्दी का ग्रेटर बंगाल प्लान, कांग्रेस और मुस्लिम लीग से अलग
1946 में देश में चुनाव हुए. बंगाल में मुस्लिम लीग जीत गई. 121
रिजर्व्ड सीटों में से इनको 114 सीटें मिलीं. इस जीत ने साबित किया कि अब
जनता में भी दो देश का विचार फ़ैल चुका है. इस चीज को मुस्लिम लीग ने खूब
भुनाया. जब भी पाकिस्तान और ‘दो दिलों के टूटने’ की बात होती तो ये लोग इस
जीत का जिक्र करते.
गांधी और सुहरावर्दी
पर हुसैन सुहरावर्दी ने एक अलग प्लान भी बनाया था. ईस्ट इंडिया में एक
अलग देश की. पूरा बंगाल, असम और बिहार के कुछ जिलों को मिलाकर. इसको ग्रेटर
इंडिपेंडेंट बंगाल कहे जाने का प्लान था. हुसैन सुहरावर्दी उस वक़्त बंगाल
के मुख्यमंत्री थे. इस प्लान में बंगाल के हिन्दू नेता शरत चन्द्र बोस,
किरण शंकर रॉय और सत्य रंजन बख्शी भी शामिल थे. पर ये प्लान फ्लॉप हो गया.
इसी दौरान एक घटना हुई जिसने सारे रिश्ते-नाते बदल दिए. ब्रिटेन से आये
कैबिनेट मिशन ने प्लान किया था कि इंडिया को डोमिनियन स्टेटस यानी ब्रिटेन
के अंडर रखकर सत्ता ट्रान्सफर कर दी जाएगी. पर मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ
किसी भी तरह का जोड़ करने के लिए तैयार नहीं थी. इन्होंने दलील दी कि
हिन्दू वाले एरिया हिंदुस्तान और मुस्लिम वाले पाकिस्तान में बांट दिए
जाएं. कांग्रेस इस बात पर राजी नहीं हुई.
जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन डे और सुहरावर्दी पर क़त्ल का इल्जाम
इसके जवाब में मुहम्मद अली जिन्ना ने कलकत्ता में 16 अगस्त 1946 के दिन
‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ऐलान किया. इरादा था अपनी पाकिस्तान की इच्छा को
पब्लिक के माध्यम से जगजाहिर करना. उस वक़्त बंगाल में हिन्दू महासभा भी
मारवाड़ी व्यापारियों के साथ अपना सपोर्ट जुटा चुकी थी. बंगाल
हिन्दू-मुस्लिम में बंट गया था. नेताओं को इस बात का अंदाज़ा था कि क्या हो
सकता है. उन्माद और पागलपन की रोज नई खबरें आतीं. पर सब इंतजार करते रहे.
मुहम्मद अली जिन्ना
16 अगस्त को प्रदर्शन के साथ झड़प शुरू हुई. और दंगे में बदल गई. ये दंगा
6 दिन तक चला. हजारों लोगों की मौत हुई और लाखों बेघर हो गए. हुसैन
सुहरावर्दी पर इल्जाम लगा कि वो खुद लालबाज़ार पुलिस थाने में जाकर मुआयना
करते. दंगों के लिए. पुलिस को खुली छूट दे दी थी. मारने के लिए. गवर्नर सर
फ्रेडरिक बरो और लेफ्टिनेंट जनरल सर फ्रांसिस टकर ने सुहरावर्दी पर सीधे
इल्जाम लगाया. कि डायरेक्ट एक्शन के लिए सुहरावर्दी ने पुलिस को एक दिन की
छुट्टी दे दी थी. पर ये नहीं बताया कि उन्होंने अपनी आर्मी को क्यों रोक
रखा था. क्योंकि जब आर्मी सड़क पर निकली तो दंगाई भाग गए.
थ्योरी सीधी थी: कमजोर को मार देना है. फिर ताकतवर इतिहास से उनका नाम मिटा देंगे.
भारत-पाकिस्तान बनने की घोषणा के बावजूद सुहरावर्दी कलकत्ता में ही रुके थे. वजह थी कि दोस्तों ने रोक लिया था.
फिर नोआखाली में गांधी और सुहरावर्दी रुके एक छत के नीचे
गांधी और सुहरावर्दी
इसी दंगे के बाद सबसे भयानक दंगा नोआखाली में हुआ था. अगस्त 1947 में.
हालांकि इसकी भूमिका 1946 से ही बन रही थी. यहां का दिआरा शरीफ हिन्दू और
मुसलमान दोनों के लिए धार्मिक जगह था. पर यहां के खादिम गुलाम सरवर ने
हिन्दुओं के खिलाफ तकरीरें करनी शुरू कर दी थीं. तकरीरें चलती रहीं, दंगे
होते रहे. सैकड़ों लोगों को मार दिया गया. हजारों औरतों का रेप हुआ. हजारों
का जबरी धर्म बदलवा दिया गया. नोआखाली के दंगे ने हिंसा का एक अलग रूप
दिखाया.
महात्मा गांधी दंगों के दौरान
नोआखाली गए. उस इलाके में गए जहां पर मुसलमान ज्यादा मरे थे. वहां उन्होंने
सुहरावर्दी से जिद की कि मेरे साथ एक ही घर में रुको. दोनों हैदरी हाउस
में रुके. इस बात से जनता में बहुत आक्रोश था. फिर दोनों बाहर निकले, एक
अधनंगा और दूसरा सूट-बूट में. एक अहिंसा का प्रेमी और दूसरा हजारों के क़त्ल
का इल्जाम लिए हुए.
जनता ने आवाज दी: गांधी, यहां क्यों आये हो? हिन्दुओं का दर्द नहीं दिखता?
गांधी ने कहा: इसीलिए आया हूं. मुझे सबका दर्द दिखता है.
जनता ने कहा: जिंदा नहीं जाओगे.
गांधी ने कहा: मार दो. मुझे डर नहीं लगता सही करने से. मैं उपवास रख रहा हूं.
शाम तक हजारों लोग गांधी के साथ
बैठे थे. हर तरह के सवाल-जवाब हुए. नए लड़के गरमा-गर्मी से सवाल पूछते.
गांधी प्यार से जवाब देते. दंगा ख़त्म हो गया था. गांधी दंगे में बेघर लोगों
के आंसू पोंछ रहे थे.
पाकिस्तान में सुहरावर्दी को नहीं मिली जगह
अयूब खान और सुहरावर्दी
पाकिस्तान बनने के बाद सुहरावर्दी को दरकिनार किया जाने लगा. क्योंकि डर
था कि सुहरावर्दी अपने बंगाल की मांग पर ना अड़ जाएं. सुहरावर्दी को पूर्वी
पाकिस्तान का मुख्यमंत्री भी नहीं बनाया गया. इनकी जगह पर एक छोटे नेता
नज़ीमुद्दीन को सत्ता दे दी गई. फिर एक चीज भी बदल गई थी. जिन्ना की मुस्लिम
लीग इस्लाम लेकर चलती थी. सुहरावर्दी की अवामी लीग सेक्युलर थी!
सुहरावर्दी को वेस्टर्न कल्चर से भी लगाव था. बाद में प्रधानमंत्री बने थे,
पर बहुत कम समय के लिए. तब तक पाकिस्तान हर किसी के हाथ से निकल चुका था.
कहते हैं कि सुहरावर्दी को ज्यादा मौका मिलता तो शायद पाकिस्तान का ये हाल
ना होता.
सुहरावर्दी के ही शिष्य मुजीब
ने अवामी लीग को फिर से उठाया और 1971 में पाकिस्तान से काटकर बांग्लादेश
बना दिया. सुहरावर्दी का ग्रेटर बंगाल तो नहीं बन पाया, पर पाकिस्तान जरूर
टूट गया.
ये कोई बता नहीं सकता कि किसी की जिंदगी क्या मोड़ लेगी. कोई क्या फैसले
लेगा. पर सुहरावर्दी की तरह का आदमी हमेशा इतिहास के कठघरे में रहता है.
इतना जटिल आदमी, जो अपने हर काम के साथ इतिहास मोड़ देता है. जो डरते हुए भी
किसी की जान ले सकता है. कमजोर होने के बावजूद तानाशाहों को डरा सकता है.
और अंत में हजारों के खून का इल्जाम लिए जनता का नेता
हिंदुस्तान-पाकिस्तान-बंगाल सबसे दूर लेबनान में अकेले मरता है.
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