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वर्ल्ड के बहुत से फिल्म फेस्टिवल्स में देखी और सराही जा रही डॉक्यूमेंट्री An Insignificant Man को पास करने के लिए भारत में सेंसर बोर्ड ने ऐसी शर्त रखी दी है जो बहुत बचकानी है और जिसे पूरा करना संभव नहीं है. इसे डायरेक्ट करने वाले विनय शुक्ला और खुशबू रांका से हमने बात की जिन्होंने बताया कि वे आगे क्या रणनीति बना रहे हैं.


जेनेवा में भारतीय डॉक्यूमेंट्री An Insignificant Controversy देखते हुए ब्राजील की पूर्व-राष्ट्रपति डिल्मा रूज़ेफ.





‘शिप ऑफ थिसीयस’ फेम फिल्ममेकर आनंद गांधी ने ‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ यानी ‘एक आम/मामूली आदमी’ नाम की डॉक्यूमेंट्री फिल्म प्रोड्यूस की है. इसे दो युवाओं ने डायरेक्ट किया है – खुशबू रांका और विनय शुक्ला. इन दोनों ने दिसंबर 2012 में यानी करीब पांच साल पहले इसे शूट करना शुरू किया था. तब भारतीय राजनीति में आम आदमी पार्टी की एंट्री होने वाली थी. खुशबू और विनय ने पार्टी की अंदरूनी बैठकों, सम्मेलनों, घटनाओं और लोगों को वीडियो कैमरा लेकर फॉलो किया.




लंबे समय तक बनने वाली इस फिल्म का प्रीमियर दुनिया के बहुत प्रतिष्ठित टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल-2016 में 11 सितंबर को हुआ. फिर अक्टूबर में भारत में इसे मामी फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया. तब से फ्रांस, अर्जेंटीना, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया, मैक्सिको, इज़रायल, न्यू यॉर्क जैसी कई जगह इसकी स्क्रीनिंग हो चुकी है और सब जगह उत्साहित करने वाली प्रतिक्रियाएं आई हैं.



दो महीने पहले 30 मार्च में स्विट्जरलैंड के जेनेवा में ब्राजील की पूर्व-राष्ट्रपति डिल्मा रूज़ेफ भी भीड़ में बैठकर An Insignificant Man देखती नजर आई थीं. 1997 में ‘द आइडिया ऑफ इंडिया’ जैसी बेहद महत्वपूर्ण और आइकॉनिक बुक लिखने वाले सुनील खिलनानी ने इस डॉक्यूमेंट्री के बारे में लिखा, “भारतीय लोकतंत्र और दुनिया में जहां भी पॉपुलर पॉलिटिक्स है उनके छायांकन में ये एक लैंडमार्क है.”

सुनील खिलनानी और उनका कमेंट.

अब फिल्म को भारत में रिलीज करने की तैयारी है लेकिन केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) ने उसे सर्टिफिकेट नहीं दिया है. डायरेक्टर्स का कहना है कि बोर्ड के प्रमुख पहलाज निहलानी ने उन्हें कहा है कि फिल्म में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और दिल्ली की पूर्व-मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की फुटेज फिल्म में है इसलिए फिल्म को सर्टिफिकेट तभी मिलेगा जब वे लोग इन तीनों से अनापत्ति प्रमाण पत्र यानी No Objection Certificate लेकर आएं.



इस किस्म की मांग सेंसर बोर्ड ने पहले की हो याद नहीं आता. क्योंकि राजनेता पब्लिक फिगर हैं और वे पब्लिक रैलियों में क्या बोलते हैं उसे कला जगत में पुनर्निर्मित करने के लिए किसी मंजूरी की जरूरी नहीं है. ये काम पत्रकार, कलाकार, लेखक तब से करते आए हैं जब लोकतंत्र बना भी न था. लेकिन पहलाज निहलानी इससे पहले भी हैरान करने वाले फैसले ले चुके हैं. जैसे उन्होंने ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ को इसलिए पास करने से मना कर दिया क्योंकि उनको ये लेडी ओरिएन्टेड फिल्म लगी जिससे शायद समाज खराब हो जाता.

ख़ुशबू और विनय.

सारी बात जानने के लिए दि लल्लनटॉप ने फिल्म के डायरेक्टर विनय शुक्ला और खुशबू रांका से बात की जो यहां प्रस्तुत हैः

पूरा पोस्ट पढे दि लल्लनटॉप पर


कब अप्लाई किया था आपने सेंसर सर्टिफिकेट के लिए और अब तक क्या हो चुका है?

खुशबूः 
हमने फरवरी में अप्लाई किया था. जब एग्जामिनिंग कमिटी ने फिल्म देखी तो हम वहीं पर थे. आमतौर पर ये होता है कि सीबीएफसी के लोग वहां मौजूद फिल्ममेकर्स को भी एंगेज करते हैं और उन्हें फिल्म को लेकर कोई भी इश्यू होता है तो वो उनको अपना पक्ष रखने का मौका देते हैं. लेकिन बोर्ड के लोगों ने  हमसे ऐसी कोई बात नहीं की. बस इतना कहा कि आपको हम लेटर भेजेंगे.


बाद में उन्होंने लेटर भेजा तो उसमें लिखा था कि ये फिल्म अगली कमिटी को रेफर की जा रही है क्योंकि इसको हम अभी सर्टिफिकेट नहीं दे सकते. और उन्होंने कोई रीज़न नहीं दिया था. ये असामान्य बात थी क्योंकि वो लोग जब भी किसी फिल्म को अगली कमिटी को रेफर करते हैं तो अकसर वजह बताते हैं. जैसे कि ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ के टाइम उन्होंने कहा था कि ‘लेडी ओरिएंटेड’ फिल्म है. हमें कुछ नहीं कहा.


तो हमारे कई दिन तो यही पूछने में निकल गए कि हमें बता दीजिए फिल्म से आपको प्रॉब्लम क्या है ताकि सॉल्यूशन ढूंढ़ सकें. हम पहलाज निहलानी के ऑफिस में गए तो उन्होंने अपने पीयून को बोला कि इन लोगों को बाहर निकाल दो.


ये सब हुआ तो फाइनली हमने रिवाइजिंग कमिटी में अप्लाई किया जहां निहलानी भी थे, उन्होंने फिल्म देखी और कहा कि आप पीएम (नरेंद्र मोदी), अरविंद केजरीवाल और शीला दीक्षित का एनओसी (No Objection Certificate) ले आइए. इसके अलावा बीजेपी और कांग्रेस का नाम फिल्म में जहां लिया जा रहा है वो बीप कर दीजिए. फिर आप रिलीज कर सकते हैं.

मैक्सिको के एम्ब्युलांते में 16 मई को हुई इस डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग का एक दृश्य. (फोटोः फेसबुक)



अगर कोई उपाय निकल आता है तो आप कब तक इसे रिलीज करना चाहते हैं.

विनय शुक्लाः 
हम जल्द से जल्द रिलीज करना चाहते हैं. फिल्म सितंबर में प्रीमियर हुई है तब से हमारी कोशिश यही थी कि फिल्म इंडिया में जल्द से जल्द सिनेमाघरों में लग जाए. जैसे ही किसी प्रकार का क्लीयरेंस मिलता है, हम रिलीज कर देंगे.



अगर कोर्ट में बात जाती है और समय लग जाता है तो आपको रिलीज आगे भी बढ़ानी पड़ सकती है?

विनयः 
अब इसमें हमारे हाथ थोड़े बंधे हुए हैं. जैसा कि आप जानते हैं 800 लोगों से इस फिल्म को क्राउडफंड किया था और वो इसे जल्द से जल्द रिलीज होते देखना चाहते हैं. अभी फिल्म के आस-पास उत्साह भी है और जैसे-जैसे समय गुजरता है उत्साह भी कम होता है. अभी ये प्रोसेस फरवरी से चल रहा है. अब उन्होंने तो कह दिया कि एनओसी लेकर आइए लेकिन हमारे पास ऑप्शन कम है और समय ज्यादा लग रहा है.


फिल्म भारत में प्रीमियर हुई और बाहर के फिल्म फेस्टिवल्स में लगातार जा रही है, रिव्यूज़ काफी अच्छे हैं.

विनयः 
और इस पर (सेंसरिंग) खुली चर्चा होनी चाहिए लगातार. लोग इसे देख लें. फिर चाहे उन्हें अच्छी लगे या न लगे. लेकिन किसी फिल्म को रोक लेना ठीक नहीं. यहां पर ये लोग (निहलानी) ऐसा नहीं कह रहे कि हम पास नहीं होने देंगे. क्योंकि ऐसा बोलेंगे तो हाय-हल्ला हो जाएगा. लेकिन ये आपके सामने ऐसी असंभव शर्त रख देते हैं जो पूरी नहीं हो सकती. और मोदी या केजरीवाल का एनओसी लाने की बात? भला कौन एनओसी लाया है किसी का. ऐसे तो कोई जर्नलिस्ट अपना काम ही नहीं कर पाएगा. फिर तो आप कोलगेट स्कैम पर स्टोरी करने जाएंगे और मैं कह दूंगा कि पहले आप कांग्रेस पार्टी से एनओसी लेकर आइए तो ये कैसे होगा!


इस विवाद पर प्रोड्यूसर आनंद गांधी कहते हैंः




उन्होंने रवीना टंडन या सलमान खान का उदाहरण दिया कि इनके नाम जिन फिल्मों में यूज़ हुए उनमें भी एनओसी ली गई थी. हालांकि फर्क ये है कि वो फिक्शनल-कमर्शियल एंटरटेनमेंट था लेकिन ये फिल्म सार्वजनिक दायरे में राजनेताओं या उनकी बातों का डॉक्यूमेंट है जिसकी एनओसी लेने का लॉजिक भी नहीं बनता और पूर्व-उदाहरण भी नहीं याद आता?

खुशबूः 
एग्जैक्टली, पर उसमें भी मुझे लगता है कि रवीना की एनओसी लेने की जरूरत नहीं है, या फिर सलमान खान की. अगर वो ऐसा करवा रहे हैं तो लोगों को इस पर आपत्ति लेनी चाहिए. सलमान खान और रवीना भी पब्लिक फिगर हैं. पहले भी फिल्मों में लोग अमिताभ बच्चन का नाम लेते थे, उसका एक पोएटिक कॉन्टैक्स होता है. उसे पॉलिटिकली नहीं लेना चाहिए. कोई तो स्पेस होना चाहिए जहां लोग अपने मन का कह सके. अगर सलमान खान पर भी किसी का कोई ओपिनियन है तो क्या उसके लिए एनओसी लेंगे?



सीबीएफसी ने हाल के दिनों में ‘लंच’, ‘सरकार’, ‘आदिवासी’ जैसे शब्दों तक पर आपत्ति की है जो किसी भी लिहाज से आपत्तिजनक नहीं हैं.

खुशबूः 
जैसे ‘मन की बात’ भी सेंसर किया गया. सबसे खास बात है ये कि वो किस हिसाब से ये सारी सेंसरिंग कर रहे हैं. बिलकुल मनमाने ढंग से कर रहे हैं. कभी कुछ पास कर भी रहे हैं और कभी नहीं भी कर रहे हैं.



आशा पारेख ने कहा है कि सरकार की गाइडलाइन्स के हिसाब से पहलाज निहलानी सही काम कर रहे हैं.

खुशबूः
 मुझे नहीं लगता वो गाइडलाइन्स के दायरे में कर रहे हैं. दिशा-निर्देश खुद ही अस्पष्ट हैं, उनको किसी भी तरीके से इंटरप्रेट किया जा सकता है. अगर वो सही कर रहे हैं तो पॉसिबल ही नहीं है कि कोर्ट में उनके फैसलों को बदलना जो कि लगातार हो रहा है.

विनयः आपको ये बात भी याद रखनी होगी कि आशा पारेख खुद सीबीएफसी चेयरमैन थीं, तो वो ऐसा ही कहेंगी. खुशबू ने इस पर बहुत सही कहा है कि अगर वो सही काम कर रहे हैं तो कोर्ट बार बार उनको फटकार क्यों लगा रहा है.



‘बैटल ऑफ बनारस’ डॉक्यूमेंट्री भी रुकी हुई है. उसका कंटेंट भी आपकी फिल्म जैसा ही है. उसमें 2014 के आम चुनाव में बनारस सीट पर नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल और अन्य प्रत्याशियों के मुकाबले को कैप्चर किया गया है.

खुशबूः 
हमने देखी नहीं है वो फिल्म लेकिन बात यही है कि अगर आप पॉलिटिक्स से इंगेज ही नहीं करने देंगे तो क्या होगा! अगर रोज सुबह उठकर ये सुनेंगे कि आज किसे नहीं बोलने दिया गया? ये अलग-अलग फिल्मों के साथ होता रहेगा जब तक कोई ठोस सॉल्यूशन नहीं निकलता.



आनंद गांधी जो An Insignificant Man के प्रोड्यूसर हैं, क्या मानते हैं सेंसरशिप का लंबी दूरी में इलाज क्या है?

विनयः 
सीधी बात है कि ये सेंसर नहीं सर्टिफिकेशन बोर्ड है. उन्हें अपना रोल ठीक करना पड़ेगा. कि ये जिस काम के लिए बने हैं वो काम करें. ये फिलहाल हमें कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी, केजरीवाल, शीला दीक्षित के एनओसी लेकर आइए. ये इनका काम ही नहीं है! कल को इन तीनों को हमारी फिल्म से प्रॉब्लम होगी तो वो हमारे खिलाफ किसी भी कोर्ट में केस करने या कोई भी आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए स्वतंत्र हैं. इस देश का नागरिक होने के नाते ये हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम संविधान और एक-दूसरे के वैयक्तिक अधिकारों की इज्जत करें. फिलहाल सेंसर बोर्ड जैसे काम करता है वो गलत है, इसमें कोई दो राय नहीं है.


खुशबूः एक देश के तौर पर अगर हम प्रोग्रेस करना चाहते हैं, तो और ज्यादा फ्रीडम के माहौल में ही ऐसा कर पाएंगे. हमने ऐसा कहां पढ़ा या सुना है कि कोई ऐसा देश है जिसने अपने नागरिकों का फ्रीडम कम किया और बहुत आगे बढ़ गया? प्रोग्रेस और फ्रीडम के बीच सीधा संबंध है. अगर हमें प्रगतिशील होना है तो सेंसरशिप को समझना होगा, हम छोटी-छोटी बात पर ये नहीं कर सकते.



फिल्म का ट्रेलरः

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